हेमकुंड साहिब ऐतिहासिक गुरुद्वारों की श्रेणी में क्यों नहीं?

हेमकुंड साहिब ऐतिहासिक गुरुद्वारों की श्रेणी में क्यों नहीं?
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उत्तराखण्ड के चमोली में समुद्रतट से 15 हज़ार फीट की ऊंचाई पर हिमालय पर्वत की चोटी पर स्थित गुरुद्वारा हेमकुण्ड साहिब जहां आज देश विदेश से लाखों की गिनती में श्रद्धालु हर साल नतमस्तक होने के लिए पहुंचते हैं मगर बहुत ही विचित्र बात है कि आज तक इस स्थान को सिखों के एतिहासिक गुरुद्वारों की श्रेणी में शामिल नहीं किया गया। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं यह सोचने का विषय है। इस स्थान की सेवा संभाल हेमकुण्ड ट्रस्ट ही संभालता आ रहा है जो हेमकुण्ड साहिब के अलावा गोबिंद धाम, गोबिंद घाट, जोशीमठ, ऋषिकेश आदि सभी गुरुद्वारों की देखरेख करता है। ऐसे में हो सकता है कि शिरोमणि कमेटी को लगता हो कि इस स्थान की गोलक तो उनके पास आएगी नहीं और ना ही ट्रस्ट उन्हें सेवा करने देगा। शायद इसी के चलते इसे ऐतिहासिक गुरुधामों की श्रेणी से वंचित रखा जा रहा है।
इतिहासकारों की मानें तो सिखों के दसवें गुरु गोबिंद सिंह जी इस स्थान पर धरती पर जन्म लेने से पूर्व अपने पिछले जन्म में सैकड़ों साल तक तपस्या करते रहे और इसी स्थान पर उन्हें धरती पर जुल्म का विनाश करने हेतु पुनः जन्म लेने के लिए अकाल पुरख का हुक्म हुआ। धरती पर जाकर समूची मानवता को नई दिशा दिखाने के लिए कहा गया। जिसके बाद गुरु जी ने नौवें गुरु तेग बहादुर जी के घर माता गुजरी की कोख से जन्म लिया और ज़ालिमों का नाश करते हुए सिख कौम की स्थापना की। देश और धर्म की खातिर अपने पिता, चारों पुत्रों का बलिदान देकर एक अनोखी मिसाल कायम की।

हेमकुण्ड संस्कृत का शब्द है जिसमें हेम बर्फ को कहा जाता है और कुण्ड का अर्थ कटोरा है। 2 सदियों तक यह स्थान पूरी तरह से अलोप रहा। कवि संतोख सिंह द्वारा रचित गाथाओं में हालांकि इसका ज़िक्र अवश्य आता है। 19 वीं सदी में पंडित तारा सिंह जो निर्मला संप्रदाय से थे उन्होंने 508 धार्मिक स्थलों की श्रेणी में इस स्थान को भी लिया। सिख साहित्यकार भाई वीर सिंह ने भी अपनी कथाओं में इसका ज़िक्र किया जिसे पढ़कर आर्मी के रिटायर्ड हवलदार मोहन सिंह ने इस स्थल को ढ़ूढ़ने की मुहिम शुरु की और 1934 में उन्हें कामयाबी हासिल हुई। उन्होंने इसके पुख्ता सबूत पेश किये जिसके बाद सिख रेजीमेंट के जवानों द्वारा इस स्थान पर गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश किया गया और 1970 के दशक में यहां गुरुद्वारा साहिब स्थापित कर दिया गया। मगर अधिक ऊंचाई पर होने के चलते यहां पर रहना संभव नहीं है। जो संगत दर्शनों के लिए आती है उसे दोपहर बाद यहां से वापिस नीचे आना अनिवार्य होता है। मई से अक्तूबर तक ही यह स्थान संगतों के लिए खुला रहता है बाकी 6 महीने बर्फ की चादर लिपटे रहती है। इस स्थान के समीप बनी झील पर दशरथ पुत्र राम के भाई लक्ष्मण को मेघनाथ के हाथों तीर लगने से बेहोश होने पर लाया गया था और हनुमान जी द्वारा संजीवनी बूटी लाकर पुनः जीवित किये जाने की भी बात सूत्र करते हैं। पाण्डवों का ज़िक्र भी गुरु साहिब ने दसम ग्रंथ में किया है जिससे पता चलता है कि निश्चित तौर पर उनका भी इतिहास इस स्थान से जुड़ा हुआ है।

पंजाब में ही पंजाबी के साथ धक्का

आमतौर पर देखा जाता है कि पंजाब के बाहर दूसरे राज्यों में अक्सर पंजाबियों के साथ सौतेला व्यवहार किया जाता है। हाल ही देखने में आया जब पंजाब में ही पंजाबीयत पर हमला हुआ। मामला पंजाब की राजधानी चण्डीगढ़ से जुड़ा है जहां पीजीआई चण्डीगढ़ के डायरेक्टर ने एक आर्डर निकाला जिसमें पीजीआई का कामकाज और वहां आने वाले सभी लोगों के साथ पंजाबी के बजाए हिन्दी में बातचीत करने को कहा गया। हालांकि पंजाबियों के विरोध के चलते उन्होंने इस आर्डर को वापिस भी ले लिया मगर सवाल यह बनता है कि इस तरह के आर्डर निकाले ही क्यों जाते हैं। वैसे ऐसा पहली बार नहीं हुआ इससे पहले आजादी के बाद समूचे पंजाब में कुछ संस्थाओं के द्वारा गैर सिखों को अपनी मातृभाषा हिन्दी लिखने के लिए मजबूर किया गया, जिसमें शहरों में उन्हें कुछ हद तक कामयाबी भी हासिल हुई मगर पंजाब के गांवों के लोग आज भी भले ही वह किसी भी धर्म से सम्बिन्धित हों अपनी मातृभाषा पंजाबी को ही मानते हैं। अब तो पूर्व के राज्यों से आने वाले लोग भी बहुत अच्छे से पंजाबी बोलने लगे हैं। भाजपा नेता एवं प्रसिद्ध समाज सेवी रविन्दर सिंह रेहान्सी की मानें तो देश की राजधानी दिल्ली में जब भाजपा की सरकार थी उस समय मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना के द्वारा पंजाबी भाषा को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा दिया गया। उसके बाद शीला दीक्षित की सरकार के समय भी सभी सरकारी विभागों में बाकायदा पंजाबी का स्टाफ लगाया गया ताकि जो लोग पंजाबी में पत्राचार करें उन्हें जवाब दिया जा सके। मगर मौजूदा सरकार के कार्यकाल में धीरे-धीरे सब समाप्त होता दिख रहा है। पंजाबी अकादमी का बजट बहुत कम कर दिया गया, पंजाबी टीचर्स को उनका बनता हक नहीं दिया जा रहा जिसके चलते उन्होंने कानून का सहारा लिया है। अब इसके पीछे सोच क्या हो सकती है कहा नहीं जा सकता पर इसे सीधे सीधे पंजाबी पर हमला अवश्य माना जा सकता है।

पंजाबी देश के किसी भी कोने में क्यों ना हो वह अपनी कार्यशैली और जिन्दादिली से सभी का दिल जीत लेते हैं अब तो विदेशों में पंजाबियों ने अपनी पकड़ बना ली है जिन देशों में गौरों ने आजादी से पूर्व पंजाबियों की एन्ट्री पर पाबंदी लगाई थी आज वहां पंजाबी शान से रह रहे हैं। पंजाबी गानों की धूम भी समूचे संसार में देखने को मिलती है जिन लोगों को भले ही पंजाबी समझ भी ना आए मगर पंजाबी गानो पर उन्हें थिरकते देखा जा सकता है। पंजाबी स्वयं तो क्या दूसरों पर भी जुल्म होते नहीं देख सकते। इतिहास गवाह है जुल्म के खिलाफ हमेशा पहली आवाज पंजाब से ही उठती है शायद इसलिए भी सरकारों और संस्थानों के द्वारा पंजाबियों को दबाने के प्रयास समय समय पर किए जाते हैैं। देश की सरहदों पर भी पंजाबियों की गिनती अधिक देखी जा सकती है।

कुश्ती, हॉकी और अन्य खेलों में भी पंजाबियों का हमेशा डंका बजता रहा है। हाल ही में क्रिकेट वर्ल्ड कप भी भारत ने पंजाबियों के दम पर ही जीत हासिल की है।

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