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गुस्से में क्यों है हांगकांग?

जब किसी भी देश की जनता अपने अधिकारों की रक्षा के लिए और शोषण से मुक्ति के लिए उठ खड़ी होती है तो जीत हमेशा जनतंत्र की होती है।

जब किसी भी देश की जनता अपने अधिकारों की रक्षा के लिए और शोषण से मुक्ति के लिए उठ खड़ी होती है तो जीत हमेशा जनतंत्र की होती है। जनता के आगे हमने बड़े-बड़े तानाशाहों की सत्ता को धराशायी होते देखा है। बड़े से बड़े ताकतवर भी जनता के सामने घुटने टेकने को मजबूर हो जाते हैं। हांगकांग में पिछले कुछ दिनों से मचे बवाल के बाद वहां की सरकार ने विवादास्पद प्रत्यर्पण कानून को निलंबित करने का ऐलान कर दिया है मगर देश की जनता सड़कों पर है। प्रदर्शन में दस लाख लोगों का एकत्र होना इस बात का प्रमाण है कि लोग प्रत्यर्पण कानून को निलंबित नहीं बल्कि हमेशा के लिए खत्म करने की मांग कर रहे हैं। हांगकांग की जनता संघर्ष की प्रतीक बन चुकी है। 
हांगकांग में लोकतंत्र सीमित है, इसलिए जनता को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ता है। हांगकांग के प्रत्यर्पण कानून के मुताबिक उसका कई देशों के साथ कोई समझौता नहीं है। इस कारण अगर अपराध कर कोई  व्यक्ति हांगकांग पहुंच जाता है तो उसे प्रत्यर्पित नहीं किया जा सकता। चीन भी ऐसे देशों में शामिल है लेकिन हांगकांग की सरकार इस मौजूदा कानून में संशोधन करना चाहती है। इसके बाद लोगों को चीन, ताइवान और मकाऊ में प्रत्यर्पित किया जा सकेगा। इस कानून के तहत हांगकांग सरकार संदिग्ध अपराधियों को उन देशों में भेजने की इजाजत देगी, जिनके साथ उनकी कोई संधि नहीं। इसके अलावा किसी भी देश द्वारा किसी आरोपित को सौंपने की अर्जी को स्वीकार करने का अधिकार केवल हांगकांग सरकार की प्रमुख कार्यकारी को ही होगा। 
अर्जी को स्वीकार या खारिज करने की प्रक्रिया में हांगकांग की 70 सदस्यीय विधान परिषद की कोई भूमिका नहीं होगी। इस प्रस्तावित कानून को लेकर हांगकांग में आक्रोश फैल गया। लोगों का आरोप है कि यह संशोधन चीन सरकार के कहने पर किया जा रहा है। इसके बाद चीन की सरकार हांगकांग के लोगों को भी पक्षपातपूर्ण न्यायिक व्यवस्था के जरिए निशाना बनाएगी। हांगकांग के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का एक बड़ा गुट सक्रिय है जो चीन सरकार के तानाशाही रवैये का हमेशा ही विरोध करता आ रहा है। हांगकांग सरकार की मुखिया कैरी लैम को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की पसंदीदा नेता माना जाता है। हांगकांग में प्रशासन यानि सरकार के मुिखया को जनता नहीं चुनती बल्कि एक समिति चुनती है, जिस पर कम्युनिस्ट पार्टी का बड़ा प्रभाव है। 
चीन में मानवाधिकारों की कोई कीमत नहीं। इस मामले में उसका पुराना रिकार्ड काफी कलंकित है। उसने हमेशा मानवाधिकारों की हत्या की है और विरोधियों को कुचला है। लोगों का कहना कि 1997 में ब्रिटेन ने स्वायत्तता की शर्त पर हांगकांग चीन को सौंपा था तब चीन ने ब्रिटेन से वादा किया था कि वह एक देश-दो व्यवस्था के तहत काम करेगा और हांगकांग को अगले 50 वर्ष के लिए अपनी सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी व्यवस्था बनाये रखने की पूरी आजादी देगा। ऐसे में प्रत्यर्पण कानून में बदलाव करना 1997 के समझौते के खिलाफ है। दूसरी ओर हांगकांग की प्रमुख कैरी लैम का कहना है कि हांगकांग दुनियाभर के अपराधियों के लिए स्वर्ग बनता जा रहा है, अगर कानून नहीं बनाया गया तो हालात बहुत बुरे हो जाएंगे लेकिन लोग चीन के रवैये को लेकर चिंतित हैं। 
लोग अब चीन समर्थक कैरी लैम के इस्तीफे की मांग को लेकर सड़कों पर उतरे हुए हैं। विधि विशेषज्ञ मान रहे हैं कि अगर यह कानून बनता है तो हांगकांग की स्वायत्तता और यहां के नागरिकों के मानवाधिकार खतरे में पड़ जायेंगे। चीन अपने  विरोधियों को चुन-चुन कर कुचलेगा, जैसा उसने तिब्बत में किया है। हांगकांग के मौजूदा आंदोलन ने 2014 अंब्रेला आंदोलन की याद दिला दी है। हालांकि अंब्रेला आंदाेलन भी लोकतंत्र को बचाने के लिए था लेकिन उसे लोगों का व्यापक समर्थन नहीं मिला था इसलिए आंदोलन फ्लाप हो गया था। 
हांगकांग का शासन 1200 सदस्यों की चुनाव समिति के मुख्य कार्यकारी अधिकारी द्वारा चलाया जाता है। हांगकांग के लोग चाहते थे कि यह प्रतिनिधि  जनता के द्वारा चुने जाने चाहिएं। अंब्रेला प्रदर्शन लम्बे समय तक जारी रहे। पुलिस और प्रदर्शनकारियों में झड़पें भी हुईं। प्रदर्शन में शामिल कुछ लोगों को सजा भी दी गई। इस बार के आंदोलन में लोगों की भागीदारी कहीं अधिक दिखाई दी। हांगकांग के प्रदर्शनों ने अपना रुख स्पष्ट कर दिया है और यह भी साफ है कि चीन के लिए ब्रिटिश-चीन संयुक्त घोषणा पत्र की कोई कीमत नहीं। वैश्विक शक्तियों को हांगकांग की जनता के अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करनी चाहिए। चीन भले ही कुछ दिन के लिए शांत बैठ जाये लेकिन उसकी कोशिश होगी ​िक हांगकांग में प्रत्यर्पण कानून बन जाये और वह इसका प्रयोग आलोचकों के खिलाफ कर सके।

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