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संसद क्यों नहीं बोल रही?

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जब देश की सड़कों पर चौतरफा हंगामा बरपा हो रहा है तो संसद किसी भी तरह चुप नहीं बैठ सकती है क्यों​िक इसमें बैठने वाले सांसद उन्हीं लोगों की ‘आवाज’ होते हैं जो सड़कों पर निकल कर अपनी मांगों के लिए ‘आवाज’ उठा रहे होते हैं। एेसे माहौल में संसद का एक ही कर्तव्य होता है कि वह सड़कों पर उठने वाली आवाज को अपनी आवाज बनाकर इसके भीतर रचनात्मक चर्चा का वातावरण बनाये जिससे लोगों की समस्याओं पर बहुआयामी बहस करके उनका ठोस हल निकल सके। इसमें भी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका लोकसभा की होती है क्योंकि यही सदन किसी भी सरकार को बनाने या बिगाड़ने का अधिकार रखता है। अभी तक केवल तीन मौके एेसे आये हैं जब प्रधानमन्त्री स्वयं इस प्रत्यक्ष चुने हुए सदन के नेता नहीं रहे हैं। पहला मौका 1966 में स्व. इदिरा गांधी के राज्यसभा सदस्य होते हुए प्रधानमन्त्री चुने जाने पर आया था , दूसरा अवसर 1996 में श्री एच.डी. देवेगौड़ा के प्रधानमन्त्री बनने पर था और तीसरा मौका डा. मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री बनाये जाने का था।

ये सभी राज्यसभा के सदस्य थे मगर इन्दिरा जी एक साल तक ही लोकसभा में सदन की नेता नहीं रहीं क्योंकि 1967 की पहली तिमाही में वह रायबरेली से लोकसभा चुनाव जीत कर संसद में पहुंच गई थीं। सबसे ज्यादा समय डा. मनमोहन सिंह एेसे प्रधानमन्त्री रहे जो लोकसभा में सदन के नेता पूरे दस वर्ष तक नहीं बने। उनके स्थान पर 2004 से 2012 तक (राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी घोषित होने तक) श्री प्रणव मुखर्जी इस सदन के नेता रहे। उन्होंने इस दौरान लोकसभा को सुचारू रूप से चलाने का नया कीर्तिमान इस मायने में स्थापित किया ​िक मनमोहन सिंह की सरकार एक दर्जन से अधिक दलों की कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाली साझा सरकार थी और प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा के लोकसभा में दोनों ही बार (2004 व 2009 में ) एक सौ से अधिक सांसद थे। श्री मुखर्जी को अमेरिका से परमाणु करार के मुद्दे से लेकर गन्ना किसानों की मांगों व महंगाई से लेकर जातिगत गणना कराने व 2-जी स्पैक्ट्रम आवंटन मामले में संसदीय जांच समिति गठित करने तक की मांग पर विपक्षी पार्टी भाजपा के साथ कुछ कांग्रेस के सहयोगी दलों तक के शोर-शराबे भरे विरोध का सामना करना पड़ा था और कई बार इन मुद्दों पर लोकसभा को ठप्प जैसा भी होना पड़ा था। एक बार तो भाजपा ने 2-जी मामले पर पूरे मानसून सत्र को ही पानी में बहा दिया था। इसके बावजूद श्री मुखर्जी ने इस समस्या का हल निकाला था और इस तरह निकाला था कि विपक्ष की भावनाओं का सम्मान भी हो और संसद का समय भी बरबाद न होने पाये। 2-जी मामले की जांच कराये जाने पर श्री मुखर्जी का कहना था कि इस मामले की जांच सीबीआई को सौंप दिये जाने के बाद संसदीय समिति द्वारा इसकी जांच कराने का औचित्य संसदीय लोकतंत्र की जांच प्रणाली की विश्वसनीयता और नेकनीयत पर सन्देह पैदा कर सकता है क्योंकि अन्ततः जांच का कार्य देश की जांच एजेंसियों को ही कानून के अनुसार करना होगा मगर तब विपक्ष ने उनकी बात नहीं सुनी अतः संसद की गरिमा रखने की खातिर श्री मुखर्जी ने भाजपा की मांग मान ली और संसदीय जांच समिति गठित कर दी मगर इसका हश्र हम सभी देशवासियों ने देखा कि क्या हुआ? यह भी एक तमाशे से ज्यादा साबित नहीं हुआ। कहने का मतलब केवल इतना सा है कि सदन के नेता का पद अपने साथ लोकसभा की कार्यवाही को नियमित व सुचारू चलाने की जिम्मेदारी से बन्धा होता है और इस तरह बन्धा होता है कि खुद सरकार जनता को यह सन्देश देती है कि वह विपक्षी सांसदों द्वारा उठाये जाने वाले उसके कार्यकलाप के बारे में किसी भी प्रकार का शक कायम रखने के हक में किसी भी सूरत में नहीं है।

संसदीय प्रणाली इसके अलावा और कुछ नहीं है कि इसके माध्यम से सरकार जरूरत पड़ने पर खुद को पाक-साफ साबित कर सके। चूंकि संसद में कहा गया एक-एक शब्द प्रामाणिक व मय सबूत के होता है जिसकी तसदीक किसी न्यायालय में नहीं बल्कि संसद के भीतर ही किसी भी पक्ष के सदस्य द्वारा हो सकती है, अतः यह मंच विपक्ष की जगह सरकार के पक्ष में ज्यादा काम कर सकता है। इतिहास गवाह है कि भारत की संसद में इस रवायत का अभी तक सभी सत्तारूढ़ दलों ने पालन किया है और जिस भी दल ने इससे हट कर नई रवायत बनाने की कोशिश की है उसका लेखा-जोखा किसी और ने नहीं बल्कि अनपढ़ व मुफलिस समझे जाने वाले मतदाता ने बड़े मनोयोग से किया है। वर्तमान में लोकसभा में जो घट रहा है उसे किसी भी रूप में और किसी भी कोण से उचित नहीं कहा जा सकता। अकेले अन्नाद्रमुक दल के 30 से अधिक लोकसभा सांसद 545 सदस्यों वाले इस सदन को अपनी उस मांग के आगे बन्धक बनाकर नहीं रख सकते जिसका सम्बन्ध प्रत्यक्ष रूप से संसद से न होकर सरकार से है। लोकसभा अध्यक्ष को यह अधिकार भी संसद देती है कि वह संसद न चलने देने वाले सांसदों के व्यवहार का संज्ञान लेकर वैसी ही कार्रवाई करें जैसी उन्होंने पहले एेसा ही व्यवहार करने वाले कुछ सांसदों के खिलाफ की थी। इसके साथ ही संसदीय कार्यमन्त्री अनन्त कुमार भी यह पहल करने के लिए स्वतन्त्र हैं कि वह सरकार की ओर से अन्नाद्रमुक सांसदों को आश्वासन दें कि उनकी मांग पर सरकार विचार करने को तैयार है और संसद की कार्यसूची में उनके विषय को प्राथमिकता के आधार पर अन्य दलों के नेताओं से मंत्रणा करके लाया जा सकता है।

यदि इससे भी बात नहीं बनती है तो सदन के नेता को स्वयं आगे आकर पूरे मामले को अपने हाथ में लेना होता है जिससे संसद की कार्यवाही सुचारू ढंग से चल सके। इसकी एक नहीं बल्कि बीसियों नजीरें लोकसभा के इतिहास में दर्ज हैं। क्योंकि संसद खासकर लोकसभा की गरिमा का सीधा सम्बन्ध प्रधानमन्त्री से होता है। वह जिस सदन के नेता होते हैं यदि उसका कामकाज ठीक ढंग से नहीं चल पाता है तो उनके नेतृत्व की कुशलता पर आंच आने लगती है। सदन के नेतृत्व का मतलब देश के नेतृत्व से होता है क्योंकि 130 करोड़ लोगों द्वारा ही यह सदन चुना गया होता है परन्तु दुर्भाग्य यह है कि लोकसभा को किसी राज्य की विधानसभा बनाकर रख दिया गया है। खासकर उत्तर प्रदेश की विधानसभा पिछले 25 वर्षों से समाजवादी व बहुजन समाज पार्टी की सरकारों के दौरान इसी प्रकार चलती रही है जिस प्रकार आजकल लोकसभा चल रही है। उत्तर प्रदेश में भी बड़े-बड़े फैसले और विधेयक एेसी ही घींगामुश्ती में पारित होते रहे हैं जिनका नजारा इस बार लोकसभा ने किया है। जाहिर है कि लोकसभा भारत की महापंचायत है। यहां भारत का भाग्य बनाया जाता है, किसी विशेष राजनीतिक पार्टी का नहीं। भारत के हित में एक नहीं अगर दसियों ‘अविश्वास प्रस्तावों’ पर भी चर्चा करानी पड़े तो देश को समर्पित लोग कभी पीछे नहीं हटे हैं, चाहे हम पं. नेहरू को लें या इन्दिरा गांधी अथवा शास्त्री जी या फिर अटल बिहारी वाजपेयी को, संसद का इकबाल बुलन्द रहेगा तभी भारत का सम्मान पूरी दुनिया में ऊंचा होगा अतः गतिरोध खत्म होना ही चाहिए। अब केवल चार दिनों की बात है, बहस होनी है तो हो जाए। जिस लोकसभा ने सरकार बनाने का हुकूक अता किया है उसका हक मारना कतई वाजिब नहीं है।

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