पांच सौ और एक हजार रु. के 15 लाख करोड़ धनराशि के बड़े नोटों का चलन 8 नवम्बर 2016 को आधी रात को अचानक बन्द कर दिये जाने के डेढ़ साल बाद भी अगर देश में नये नोटों की कमी आती है तो स्वीकार करना होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था का मौद्रिक पक्ष बुरी तरह अव्यवस्था के चक्र में है जिसका कुप्रभाव आम आदमी को झेलना पड़ रहा है। किसी भी सरकार का इकबाल मूलभूत रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी चलाई गई मुद्रा अर्थात करेंसी का बाजार में क्या रुतबा होता है और इस करेंसी की सुलभता जरूरत पड़ने पर जनता को किस तरह उपलब्ध हो पाती है। बैंकों में जमा की गई धनराशियां लोगों की अपनी गाढ़ी कमाई होती है जिसे वे जब चाहें जरूरत पड़ने पर निकाल सकते हैं। इस तन्त्र को बैंकिंग व्यवसाय या उद्योग के जरिये फैलाकर स्थापित किया जाता है। आम जनता का इस प्रणाली में विश्वास बैंकिंग उद्योग की साख के समानुपाती (डाइरेक्टली प्रपोर्शनल) होता है। जमाकर्ता के मांगने पर जब बैंक उसकी जमा धनराशि को ही देने में असमर्थता दिखाने लगते हैं तो इस बैंकिंग प्रणाली से आम लोगों का विश्वास टूटने लगता है और उसे अपने पुराने बुजुर्गों की यह कहावत बरबस ही याद आने लगती है और उसकी उपयोगिता समझ में आने लगती है कि “पैसा ओ जेड़ा पल्ले” या “रकम वो जो अंटी में।” दरअसल ये कहावतें उस मध्ययुगीन भारत के काल में प्रचलित हुई थीं जब भारत में बैंकिंग प्रणाली का जन्म ही नहीं हुआ था।
1860 में ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को जब ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत की सल्तनत बेची तो इंग्लैंड की सरकार ने यहां अपने बैंकों की शाखाएं खोलीं और धनाढ्य भारतीयों ने बैंकिंग प्रणाली में चरण रखे जिसका बाद में विस्तार होता गया और 1876 के करीब पहला भारतीय ‘अवध बैंक’ खुला जो कुछ वर्ष बाद बन्द हो गया परन्तु स्वतन्त्रता संग्राम के पहले नायकों में से एक पंजाब के लाला लाजपत राय ने 1895 के करीब अपने कुछ अन्य कांग्रेसी सेनानियों के साथ पंजाब नेशनल बैंक की स्थापना की जिससे भारतीयों के धन का लाभ अंग्रेज सरकार न उठा सके और इस बैंक की लाहौर में खोली गई पहली शाखा में पहली रकम भी लालाजी ने ही जमा करके अपना खाता खुलवाया। दूसरी तरफ दक्षिण भारत में भी कई भारतीय बैंकों के खुलने का सिलसिला चालू हो चुका था। धीरे-धीरे भारत में बैंकिंग व्यवसाय का विस्तार होता चला गया और सामान्य कारोबारी से लेकर सरकारी लेन-देन में बैंकों की भूमिका लगातार बढ़ती चली गई परन्तु अंग्रेज सरकार के ‘इम्पीरियल बैंक’ ने ईस्ट इंडिया कम्पनी की कलकत्ता व मुम्बई रेजीडेंसी के ‘बैंक आफ कलकत्ता’ और ‘बैंक आफ बाम्बे’ को बाद में इम्पीरियल बैंक आफ इंडिया के नाम की शक्ल दी और आजादी के बाद 1955 में पं. नेहरू ने इसे ‘स्टेट बैंक आफ इंडिया’ का नाम देकर इसके मालिकाना हक रिजर्व बैंक के साथ मिलकर केन्द्र सरकार के हाथ में दे दिये और इसके बाद कई बड़ी देशी रियासतों के बैंकों को भी सात बैंकों में समाहित करके इसके सहायक बैंक बनाये।
इनमें स्टेट बैंक आफ त्रावनकोर से लेकर स्टेट बैंक आफ पटियाला तक शामिल थे। अब इन सभी बैंकों को स्टेट बैंक में विलयित कर दिया गया है। यह इतिहास लिखने का आशय केवल इतना है कि भारत में बैंकिंग उद्याेग की साख को सरकार की साख के साथ रखकर किस प्रकार देखा जा सकता है ? इसके साथ ही स्व. इंदिरा गांधी ने 1969 में 14 बड़े निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और बाद में 1980 में पुनः छह बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके सुनिश्चित किया कि बैंकिंग उद्योग की साख को हर हालत में सरकार की साख से अलग करके न देखा जाये मगर 1991 के बाद आर्थिक उदारीकरण के बाद बड़े निजी बैंकों को पुनः खोलने की इजाजत सरकार ने दी और इससे बैंकिंग व्यवसाय में प्रतियोगिता का माहौल बना जिसकी वजह से बैंकों से ऋण सुविधाएं लेने के साथ ही इनमें धनराशियां जमा कराने में भी सेवा-सुविधा प्रतियोगिता शुरू हुई परन्तु इसके बावजूद कभी एेसा वातावरण नहीं बन पाया कि जमाकर्ता को अपना जमा धन निकालने में असुविधा का सामना करना पड़ा हो। दरअसल क्रेडिट कार्ड या डेबिट कार्ड की संस्कृति इसी प्रतियोगिता की वजह से पनपी और एटीएम का प्रचलन भी इसके चलते बढ़ा मगर डेढ़ वर्ष पहले हुई नोटबन्दी ने इस प्रणाली और तन्त्र की जड़ें हिला कर रख दीं और लोग अपना धन निकालने के लिए कई-कई दिनों तक लाइनों में लगे रहे। इसके पीछे तर्क दिया गया कि नोटबन्दी से काला धन समाप्त हो जायेगा मगर एेसा हो नहीं सका क्योंकि भारत में जितनी मुद्रा बड़े नोटों की शक्ल में 15 लाख करोड़ रु. के करीब प्रसार में थी वह सारी की सारी बैंकों में वापस जमा हो गई। डेढ़ साल पहले कुल 17 लाख 84 हजार करोड़ रु. के लगभग के विभिन्न राशि मूल्य के नोट प्रसार में थे और अब इससे 45 हजार करोड़ रु. ज्यादा के 18 लाख करोड़ से अधिक धनराशि के नोट प्रचलन में हैं।
इसके बावजूद नोटों की कमी का होना बताता है कि रिजर्व बैंक नोटों की बढ़ती मांग की भरपाई नहीं कर पा रहा है। या फिर बड़ी मुद्रा से दो हजार रु. के नोट प्रचलन से बाहर हो रहे हैं? यदि एेसा है तो यह बहुत गंभीर प्रश्न है। यह आंकड़ा अभी तक बाहर नहीं आ रहा है कि दो हजार रु. मूल्य के कुल कितने नये नोट रिजर्व बैंक ने छाप कर बाजार में डाले हैं। आशंका यह भी जताई जा रही है कि आगामी एक वर्ष के भीतर लोकसभा समेत कई राज्य विधानसभाओं के चुनावों को देखते हुए अभी से ही नकद रोकड़ा की जमाखोरी शुरू हो गई है अथवा यह अफवाह कभी भी अमली जामा ले सकती है कि दो हजार रु. का नया नोट सरकार बन्द कर सकती है ? बेशक ये सब कयास ही हैं मगर अर्थव्यवस्था के मोर्चे खासतौर पर बैंकिंग मोर्चे पर वर्तमान सरकार के चालू ( केजुअल) रवैये को देखते हुए ही ये कयास लग रहे हैं। वैसे भी अर्थव्यवस्था के विस्तार के साथ मुद्रा प्रसार में वृद्धि अवश्यंभावी होती है। जहां तक डिजिटल लेन-देन का सवाल है यह कोरा खयाली पुलाव है क्योंकि भारत की नब्बे प्रतिशत जनता नकद रोकड़ा व्यवहार में ही यकीन रखती है। डिजिटल मनी का सीधा सम्बन्ध आर्थिक रूप से सम्पन्नता से जुड़ा होता है। यह बुरे वक्त के लिए कुछ बचाकर रखने वालों का देश है इसीलिए बैंकिंग व्यवसाय ने यहां इतना विस्तार किया मगर जब बैंक ही उसे जरूरत पड़ने पर धन अदा करने में बहानेबाजी करने लगें तो वह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि नीरव मोदी कैसे उसकी जमा रकम में से ही हजारों करोड़ रु. लेकर चंपत हो गया और किस तरह वीडियोकोन का कर्जा बट्टे खाते में आईसीआईसीआई बैंक ने डाल दिया? यह अविश्वास बैंक पर नहीं बल्कि सरकार पर पैदा होता है। भारतीय स्टेट बैंक के दो लाख से ज्यादा एटीएम हैं। अगर उनमें किसी राज्य में रोकड़ा की कमी हो जाये तो इसका क्या मतलब निकाला जा सकता है ? अन्य सरकारी बैंकों के साथ भी एेसा ही नजरिया काम करेगा। इनमें जमा धन की गारंटी सरकार की ही गारंटी होती है।