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प्यारी-प्यारी मूर्तियाें नफरत क्यों?

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बहुत-बहुत साल हो गए तस्वीर यानी कि मूर्तियों को लेकर पुरानी फिल्मों में बहुत से गीत लिखे जाते थे और ये गीत एक से बढ़कर एक हिट भी हुए हैं। उदाहरण के तौर पर-
तस्वीर बनाता हूं, तस्वीर नहीं बनती यह गीत 50 के दशक का था। इसके बाद यह गीत भी काबिलेगौर है-
किसी पत्थर की मूरत से मोहब्बत का इरादा है।
जमाना गुजरता गया। एक और गीत कमाल का था-
इक बुत बनाऊंगा तेरा और पूजा करूंगा
मर जाऊंगा, प्यार अगर मैं दूजा करूंगा।
जब आजकल व्यावहारिक जीवन में मूर्तियां तोड़े जाने या इन पर कालिख पोतने की घटनाएं होने लगी हैं तो हैरानगी होती है। जिन मूर्तियों को मोहब्बत के प्रतीक के रूप में माना जाता था, आज उन्हें नफरत की शक्ल में देखा जा रहा है। आखिर क्यों? त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी का विधानसभा चुनावों में कमल क्या खिला, वामपंथियों का 25 साल पुराना शासन क्या उखड़ा कि एक जुनून पूर्वोत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ता हुआ उत्तर भारत तक पहुंच गया।

बड़े-बड़े महापुरुषों की मूर्तियां जो स्थापित थी उन्हें तोडऩे का सिलसिला शुरू हो गया। त्रिपुरा में भाजपा (जैसा कि चैनलों पर दिखाया गया और समाचारों में बताया गया) के लोगों ने अपने जीत के जश्न में क्रांतिकारी नेता लेनिन की प्रतिमाओं को वहां से उखाड़ फेंका। इसकी प्रतिक्रिया हुई। चैन्नई में एक और क्रांतिकारी पेरियर की मूर्तियां तोड़ डाली गई। बात उत्तर भारत के हरित प्रदेश यूपी के मेरठ के कस्बा मवाना तक पहुंच गई, जहां संविधान निर्माता बाबा अंबेडकर की प्रतिमा तोड़ डाली गई। आखिरकार मूर्तियां तोडऩे के लिए नफरत की इस आंधी की वजह अगर सत्ता है तो सचमुच हमें शर्म आनी चाहिए कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक मंदिर हैं? इसमें कोई शक नहीं है कि हमारे लोकतंत्र में हमें अनेकों मौलिक अधिकार मिले हुए हैं, जो हमें पूरी दुनिया की शासन व्यवस्था से अलग रखते हैं। वरना दुनिया में ऐसे बहुत से देश हैं, जहां शासन के खिलाफ जरा सा मुंह खोलने पर भी सजा का प्रावधान है और हमारे यहां लोकसभा तक में शासन के खिलाफ वो लोग ऊंची-ऊंची आवाज में हो-हल्ला करते हैं, जो खुद संसद का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं।

हंगामे के लिए हंगामा करना ये कौन सी सियासत है। हमारे यहां सियासत में यह विश्वास किया जाता है कि विचारों की अभिव्यक्ति एक आम आदमी और नेता को है लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि आप व्यवस्था खराब कर दें। माफ करना अगर आप सत्ता में अपनी जीत का जश्न पटाखे जलाकार मनाएं तो ठीक है। जूलुस निकाले तो भी ठीक है लेकिन किसी की मूर्तियां उखाड़कर अपनी विचारधारा अगर लोगों के बीच लाना चाहते हैं तो आपकी नीयत पर शक खड़े होने लगेंगे। सत्ता प्राप्त करने के बाद भावनाओं पर नियंत्रण जरूरी है। वैसे भी शासन के लिए खुद पर नियंत्रण जरूरी है। लोग सोशल साइट्स पर मूर्तियों को लेकर जिस तरह से नफरत का जलजला उठा है, उस पर अपनी भावनाएं शेयर कर रहे हैं। जो भी है हमें और हमारे नेताओं को और इन नेताओं के समर्थकों को अपने आप पर कंट्रोल करना जरूरी है। सोशल साइट्स पर लोग यह भी कहते हैं कि ज्यादा अहंकार अच्छा नहीं होता। जीत या हार के बाद जरूरी यह है कि पराजित व्यक्ति को भी एक वही सम्मान मिलना चाहिए, जो एक योद्धा दूसरे योद्धा को देता है। पोरस जब हार गया और बंदी बना लिया गया तो सिकंदर ने उससे पूछा कि अब तुम्हारे साथ क्या व्यवहार किया जाए? तो पोरस ने कहा था कि आपको मेरे साथ वही व्यवहार करना चाहिए, जो एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है।

हमारे देश में सहिष्णुता और असहिष्णुता को लेकर देश में जो कुछ हुआ वह किसी से छिपा नहीं है। मंदिर या मस्जिद को लेकर या फिर किसी भी हिन्दू या मुसलमान कार्ड को लेकर अगर सियासत आगे बढ़ानी है तो मूर्तियों के प्रति नफरत फैलाते हुए अगर आप मंजिल हासिल करना चाहते हैं तो इसका विरोध अभी से किया जाना चाहिए। सोशल साइट्स पर लोगों की चर्चा जिस तरह से चल रही है, वह चौकाने वाली है। इस चीज का ध्यान खुद राष्ट्रीय नीति बनाने वालों को अपनी नीयत को भी सामने रखकर आगे बढऩा होगा। हालांकि गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने ठीक कहा है कि मूर्तियों को लेकर नफरत फैलाने वाले लोगों को बख्शा नहीं जाएगा। गिरफ्तारियों का दौर चल रहा है। देश में नारेबाजी तक को लेकर उन लोगों को हीरो बना दिया जाता है, जिनके खिलाफ राष्ट्रद्रोह के केस हैं या जो आतंकवादियों के समर्थन में एकजुट होते हैं। आगे चलकर यही जुनून नफरत की आंधी में बदल जाता है।

हमारा मानना है कि आलोचना यदि स्वस्थ है तो इसे स्वीकार किया जाना चाहिए, लेकिन देश के लोकतंत्र में किसी भी सूरत में ऐसी नफरत हमें नहीं चाहिए, जो जश्न की आड़ में अपनी विचारधारा को लोगों के दिलो-दिमाग में जबर्दस्ती घुसेडऩा चाहते हैं ताकि सत्ता प्राप्त हो सके। जो लोग बदनाम हो चुके हैं और अब सत्ता से दूर हैं तो वे कुछ भी कर सकते हैं, लेकिन सत्ता में रहकर अगर कोई व्यक्ति अपनी विचारधारा का किसी भी साम्प्रदायिक, मजहब या जातिकार्ड को लेकर जश्न मनाता है तो देश का लोकतंत्र इसे स्वीकार नहीं करेगा। ये पब्लिक बहुत जबर्दस्त है। जनता के जोश को भारत जैसे देश में कई-कई बार दिग्गजों को जड़ से उखाड़कर नए लोगों को पावर में बिठाने के उदाहरण के रूप में देखे जा चुके हैं। लोकतंत्र अगर अधिकता से ज्यादा जा रहा है, अपनी सीमाएं पार कर रहा है तो इसके लिए सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों को मिलकर काम करना होगा। राष्ट्र पहले है बाकि बातें सब बाद में। समय की मांग यही है कि हम राष्ट्र की सोचें।

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