देश में जातिगत आधार पर भेदभाव, दलितों पर अत्याचार और छुआछूत पर बहुत सी फिल्में बनी हैं लेकिन अधिकांश फिल्मों की कहानियां प्रेम आधारित होती थीं। कभी विमल राय ने सुजाता नाम की फिल्म बनाई थी। यह एक ब्राह्मण युवक की अछूत कन्या से प्रेम की कहानी थी। इस फिल्म को फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार मिला था। सुजाता फिल्म से पहले भी 1936 में अछूत कन्या फिल्म आई थी, जिसकी सराहना महात्मा गांधी ने भी की थी। इसके बाद ओमपुरी की आक्रोश, श्याम बेनेगल की अंकुर और सैराट और न्यूटन जैसी फिल्में आईं जिनमें जाति व्यवस्था को एक सच्चाई मानकर पूरी करानी रची गई थी।
अब आयुष्मान खुराना की फिल्म आर्टिकल-15 पर कुछ संगठन बवाल मचा रहे हैं। मैं समझ नहीं पा रहा कि इस बवाल का औचित्य क्या है। फिल्म के ट्रेलर पर बहस शुरू हो गई थी और कहा जा रहा है कि इस फिल्म में एक समाज की छवि को विकृत करने का प्रयास किया गया है। एक संगठन तो फिल्म पर प्रतिबंध लगाने के लिए अदालत में भी चला गया है। फिल्म प्रदर्शित हो चुकी है। आर्टिकल-15 यानी समानता का अधिकार। इस आर्टिकल-15 में प्रावधान है कि राज्य किसी नागरिक से केवल धर्म, मूलवंश जाति, लिंग, जन्मस्थान या इसमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-15 किसी भी तरह के भेदभाव को नकारता है लेकिन क्या अमल में ऐसा होता है?
अक्सर कहा जाता है कि जाति कभी जाती नहीं, इसलिए ही उसे जाति कहा जाता है। यह वास्तविकता है कि समाज में जातियों का बोलबाला है आैर हम सब वास्तविकता से मुंह चुराकर निकल जाते हैं। आजादी के इतने वर्षों बाद भी क्या हम आर्टिकल-15 को सही ढंग से लागू कर पाए हैं। जातिगत भेदभाव केवल गांवों में ही नहीं बल्कि यह पढ़े-लिखे लोगों में भी है। शहरी और अंग्रेजी बाेलने वाले वर्ग में भी है। बड़े संस्थानों और शिक्षा संस्थानों में भी है। मुम्बई के अस्पताल में जातिगत टिप्पणियों से परेशान होकर एक डॉक्टर युवती द्वारा आत्महत्या की खबर इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। गांवों में भी ऐसी कई क्रूर घटनाएं प्रत्यक्ष दिखती हैं जबकि महानगरों में ऐसी घटनाएं परोक्ष रूप से दिखाई देती हैं।
हाल ही में वर्धा में 8 वर्ष के एक बच्चे को मन्दिर में घुसने के आरोप में नंगा कर गर्म टाइलों पर बिठा दिया गया था। अलीगढ़ में कुछ बच्चों ने एक 12 वर्ष के बच्चे की हत्या कर दी थी सिर्फ इसलिए कि उसने मन्दिर में लगे गुब्बारे को छू लिया था। कठुआ रेप केस को किस तरह साम्प्रदायिक रंग दिया गया यह सबने अपनी आंखों से देखा है। दलित युवतियों से बलात्कार की दर काफी ऊंची है, फिर भी समाज विचलित नहीं होता। लोगों को 2010 का मिर्चपुर कांड तो याद होगा। हरियाणा के हिसार जिला के मिर्चपुर गांव में एक प्रभावशाली समुदाय के 100 से अधिक लोगोंं ने 70 वर्ष के दलित बुजुर्ग और उसकी 18 वर्ष की बेटी को जिन्दा जला दिया था।
घटना से आतंकित होकर 150 दलित परिवारों को गांव छोड़ना पड़ा था। इन लोगों ने दिल्ली के एक मन्दिर में शरण ली थी। 2014 में बदायूं के कटरा शहादतगंज गांव में दो चचेरी बहनों के शव पेड़ से लटके मिले थे। पहले गैंगरेप के बाद हत्या की बात कही गई, फिर कहा गया कि दोनों बहनों ने आत्महत्या कर ली। ऐसी घटनाएं कई बार देखने को मिलती हैं। कई बार दलितों को पेड़ से लटका दिया जाता है ताकि पूरी जात को उनकी औकात दिखाई जा सके। आज भी देश के कई क्षेत्रों में दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़कर बारात लाने का विरोध किया जाता है। दलित की बेटी की शादी हो तो पानी की सप्लाई रोक दी जाती है। पिछले 10 वर्षों में दलित उत्पीड़न में 51 फीसदी वृद्धि हुई है। ऐसा नहीं है कि दलित समाज अपने अधिकारों के प्रति सजग नहीं है, उसे जूझना भी आता है।
सामाजिक समस्याएं सख्त कानूनों के बावजूद बरकरार हैं। उनका दुरुपयोग भी होता है। इसमें संतुलन बहुत जरूरी है। जरूरी है कि सामाजिक सुरक्षा कानूनों की समीक्षा हो और समय के मुताबिक उनमें बदलाव भी होते रहे हैं। फिल्म आर्टिकल-15 का विरोध करने से समाज नहीं बदलेगा। किसी भी समाज में परिवर्तन आंतरिक तौर पर होता है। दलितों को अपने उद्धार के लिए प्रभावशाली नेतृत्व की जरूरत है। उसे अब उस नेतृत्व से मुक्ति पा लेनी चाहिए जो उनके नाम पर केवल वोट बटोरता रहा है। दलित राजनीति करने वालों ने तो सत्ता में अपना दबदबा कायम कर लिया लेकिन दलितों की जमीनी हकीकत तो वैसी की वैसी ही है। सर्व समाज को दलितों से भेदभाव रोकने के लिए स्वयं आगे आना होगा, इसलिए संविधान के अनुच्छेद-15 को याद रखना भी जरूरी है।