रायबरेली के ऊंचाहार क्षेत्र में स्थित एनटीपीसी पावर प्लांट में बॉयलर फटने से मरने वालों की संख्या बढ़ती ही जा रही है, साथ ही सियासत भी काफी गर्मा चुकी है। एनटीपीसी ने स्वीकारा कि चूक हुई है, इसके बावजूद एनटीपीसी अधिकारी न तो बॉयलर फटने का कारण नहीं बता पाए और न ही किसी की जिम्मेदारी तय कर पाए। हर दुर्घटना के बाद जांच समितियां बना दी जाती हैं, इसलिए यह कवायद भी की जाएगी। एनटीपीसी ने जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति बना दी है। राजनीतिक दल न्यायिक जांच की मांग कर रहे हैं। यह स्पष्ट है कि इस घटना से जीने के अधिकार का हनन हुआ है। घटना मानवीय लापरवाही से हुई या तकनीकी गड़बड़ी के कारण यह तो बाद में पता चलेगा, हो सकता है कि अन्य मामलों की तरह इसकी जांच भी भटक जाए या कोई तार्किक निष्कर्ष नहीं निकले। हादसे की जांच सियासत के चलते खुद हादसे की शिकार हो सकती है। यह हादसा यह दिखाता है कि इंसानी जिन्दगियों की कोई कीमत नहीं।
विस्फोट इतना भयंकर था कि प्लांट पर कार्यरत श्रमिक जिन्दा जल गए। श्रमिकों के शरीर पर लावे की तरह राख गिरी, कुछ की लाशें दीवारों पर टंगी थीं, मरने वालों की तो चीखें तक नहीं निकलीं। क्या भारत में इंसान की जिन्दगी की कीमत 20-25 लाख ही है। भारत में बीमारी हो, ट्रेन, बस या विमान हादसा हो या फिर कोई प्राकृतिक आपदा हर चीज रोकने का कोई सिस्टम नहीं, सरकारें मुआवजा देकर छुटकारा पा लेती हैं, कहने को हो जाता है कि सरकार ने अपना काम कर दिया है लेकिन हादसों को रोकने के लिए क्या है….इसका जवाब है कुछ नहीं! किसी का सुहाग उजड़ गया, किसी का भाई, किसी का बेटा बिछुड़ गया, बच्चे अनाथ हो गए, उनका दर्द शायद ही कोई महसूस कर सके। यादें धुंधली पड़ जाती हैं। अहम सवाल यह है कि बॉयलर फटा क्यों? जो बॉयलर फटा है, वह हाल ही में स्थापित किया गया था। शुरूआती तौर पर ही खामियां निकल कर सामने आ रही हैं, वह चिंतित करने वाली बात है। प्लांट को लगाने में तकनीकी विशेषज्ञों की राय नहीं लेने का आरोप भी लगाया जा रहा है। हादसे के बाद अन्य पावर प्लांट की सुरक्षा को लेकर सवाल उठ खड़े हुए हैं। एनटीपीसी के तीन ताप विद्युत गृह, बाल्को के दो, लैंको समेत अन्य जिले में स्थापित छोटे ताप विद्युत गृहों सेे बिजली का उत्पादन हो रहा है। इन पावर प्लांटाें में स्थापित यूनिटों का समय-समय पर प्रबंधन द्वारा मैंटीनेंस अवश्य कराया जाता है।
बावजूद कई ऐसे कार्य होते हैं, जो नियमित रूप से रनिंग प्लांट में किए जाते हैं। प्लांट में कोयला जलने से राख का तापमान 1800 से 2000 डिग्री सैंटीग्रेड होता है। सभी प्लांटों में राख जाम होती है और उसे हटाया जाता है। स्थानीय प्लांटों में यह समस्या है परन्तु स्थानीय प्रबंधन प्लांट बंद कर राख ठंडा होने पर ही बाहर निकाली जाती है, जो मैंटीनेंस सुरक्षात्मक तरीके से प्लांट बंद कर होनी चाहिए, प्रबंधन उसे जल्दबाजी में रनिंग प्लांट में ही करने पर जोर देता है। यहां तक कि निर्माण कार्य के दौरान ही प्लांट भी जल्द चालू करने के उद्देश्य से सुरक्षा की अनदेखी की जाती है। इसका उदाहरण वर्ष 2009 में हुए बाल्को चिमनी हादसा था। निर्धारित समय से जल्द कार्य पूरा करने के उद्देश्य से बनाई गई चिमनी में गुणवत्ता और सुरक्षा की अनदेखी की गई थी, इससे 40 मजदूरों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। हादसे को लेकर अभियंता और विशेषज्ञ सवाल उठा रहे हैं कि जो महारत्न कम्पनी एनटीपीसी देशभर में बिजली उत्पादकों को तकनीकी सलाह देती है। उसकी नई यूनिट कैसे फेल हो गई।
बिजलीघर चलाने का सबसे खास मानक ट्रिपल टी यानी टरबूलैंस, टाइम और टैम्प्रेचर कैसे फेल हो गया। अगर हादसा बॉटम एश हूपर में राख एकत्र होने से हुआ तो निगरानी के लिए तैनात अधिकारियों ने मशीन तत्काल बंद क्यों नहीं करवाई। कोई भी सेफ्टी सिस्टम काम क्यों नहीं आया? सेफ्टी सिस्टम ने आगाह किया होता तो दुर्घटना से बचा जा सकता था। मजदूर बताते हैं कि कुछ दिन पहले प्लांट ट्रिप कर गया था, कुछ खराबी आई थी, जिसे कुछ देर में दुरुस्त किया गया था। एनटीपीसी ने स्वीकार किया कि प्लांट में ऐश एविक्शन की समस्या थी जो कि प्लांट की जानकारी में था। धुआं-धुआं करता एनटीपीसी प्लांट और एक के बाद एक निकलते शवों की वजह सिर्फ और सिर्फ लापरवाही है, यह कबूलनामा किसी और का नहीं बल्कि खुद एनटीपीसी का है। आिखर किसी न किसी की जिम्मेदारी तो तय होनी ही चाहिए। ऐसे हादसों से सबक लिया जाना चाहिए। सुरक्षा के नियमों को ताक पर रख कर हजारों मजदूरों की जिन्दगी को खतरे में नहीं डाला जाना चाहिए। मजदूरों का कहना है कि हादसे का प्रमुख कारण 3 साल के प्रोजैक्ट को ढाई साल में पूरा करवाने का दबाव भी रहा। प्रोजैक्ट तो 3 वर्ष के लिए प्रस्तावित था लेकिन जीएम प्रमोट होने के लोभ में और उसके ईडी बनने की ख्वाहिश ने इस दर्दनाक हादसे की पृष्ठभूमि लिख दी थी। क्या एनटीपीसी के अधिकारी कुछ सीखेंगे?