इमरजेंसी की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ‘इन्दू सरकार’ का कांग्रेस पार्टी विरोध कर रही है और इस फिल्म के निर्माता मधुर भंडारकर के विरुद्ध हिंसक आदोलन पर उतारू है। यह पूरी तरह अलोकतान्त्रिक ही नहीं बल्कि वैचारिक असहिष्णुता का प्रतीक है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की अहलकार बनने के लिए देश के राष्ट्रपति को ज्ञापन तक सौंपने वाली कांग्रेस पार्टी का यह रवैया उसके दोहरे व्यवहार को दिखाता है। इमरजेंसी पर न जाने कितनी किताबें लिखी जा चुकी हैं और कई फिल्में भी बन चुकी हैं। इनमें दो फिल्में ‘आंधी’ और ‘किस्सा कुर्सी का’ ऐसी फिल्मी थीं जिनमें ऐतराज करने के लिए कुछ था ही नहीं, हकीकत में ‘किस्सा कुर्सी का’ फिल्म पूरी तरह फूहड़ साबित हुई थी। यह फिल्म इन्दिरा जी के सत्ता में रहते हुए ही अमृत नाहटा ने बनाई थी मगर जब इमरजेंसी हटने के बाद इसका प्रदर्शन हुआ तो आम जनता ने इसे पसन्द नहीं किया और ‘आंधी’ फिल्म में कुछ ऐसा नहीं निकला जिससे इन्दिरा जी की छवि धूमिल हो सके।
दरअसल यह प्रमाण है कि हम किस तरह अफवाहों के सहारे अपने विचारों को आकार प्रदान करने की जल्दबाजी कर जाते हैं। कांग्रेस पार्टी का नुक्सान यह फिल्म कम से कम उस हद तक तो नहीं कर सकती जिस हद तक इसका वर्तमान नेतृत्व स्वयं कर रहा है। इस पार्टी को किसी ‘रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन’ गैस जैसी बनाकर इसके वर्तमान नेतृत्व ने राजनीतिक वायुमंडल में छोड़ रखा है। कमाल यह है कि पार्टी में एक से बढ़कर एक नेता होने के बावजूद यह ‘नेतृत्वहीन’ पार्टी बनी हुई है। अत: बहुत स्पष्ट है कि पार्टी की छवि पर इमरजेंसी की घटनाएं किसी भी रूप में विपरीत असर नहीं डाल सकती हैं क्योंकि वह 1975 में देश में व्याप्त राजनीतिक परिस्थितियों का परिणाम थी। उस समय देश में इन्दिरा गांधी की कथित अधिनायकवादी नीतियों और कथित तानाशाही प्रवृत्ति के खिलाफ आन्दोलन खड़ा किया गया था जिसे ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का नाम दिया गया था मगर वास्तव में यह इन्दिरा शासन के खिलाफ ऐसा जन अभियान था जिसमें उस समय के सभी विपक्षी दलों ने अपनी सुरक्षा का भाव देखा था क्योंकि इस आन्दोलन की कमान उन स्व. जय प्रकाश नारायण ने ली थी जिनकी खुद की राजनैतिक पृष्ठभूमि कांग्रेसी होते हुए भी स्वतन्त्र भारत में कांग्रेस सरकार की नीतियों का सम्यक विरोध करने की रही थी।
इसके साथ ही वह सत्ता से दूर भागने वाले वीतरागी ऐसे राजनीतिज्ञ भी रहे थे जो ‘दलविहीन’ राजनीति के पैरोकार रहे थे। इस आन्दोलन ने जब जयप्रकाश नारायण की छत्रछाया में राष्ट्रीय स्वरूप ले लिया और अचानक न्यायालय से इन्दिरा जी के लोकसभा चुनाव निरस्त होने का फैसला आ गया तो इन्दिरा गांधी के समक्ष सत्ता छोडऩे की मजबूरी खड़ी हो गई और इस पर पार पाने के लिए ही उन्होंने देश में इमरजेंसी लगाकर सभी प्रकार के मूलभूत अधिकारों को निरस्त कर दिया। पूरे देश में सैनिक और पुलिस शासन जैसा माहौल हो गया और भारत का लोकतन्त्र किसी पारिवारिक राजतन्त्र में बदल दिया गया जिसमें इन्दिरा जी के कनिष्ठ पुत्र स्व. संजय गांधी की हैसियत किसी शाही शहजादे की हो गई और उनके हुक्म पर देश के संवैधानिक हुक्मरान नाचने लगे। संजय गांधी के मुंह से निकले हुए वचन कानून माने जाने लगे जिनका पालन करने के लिए सरकारी अमलों में होड़ लग गई। पूरे विपक्ष को जेल में ठूंस दिया गया। अदालतें पंगु हो गईं। पुलिस का एक सिपाही नागरिकों के लिए खुदा का फरमान हो गया। जो लोग कल तक आम जनता के नौकर थे वे उसके मालिक बन बैठे। अखबार वही छापने लगे जो सरकार कहती थी। सरकारी नीतियों का कानून सम्मत होना गैर जरूरी बना दिया गया।
मसलन मुल्क का पूरा निजाम कानून की जगह इन्दिरा जी की मोहलत का मोहताज हो गया। ऐसे माहौल में लोगों पर जुल्म होने ही थे क्योंकि हुकूमत की जवाबदेही खत्म हो चुकी थी मगर यह भी सच है कि इमरजेंसी को इन्दिरा गांधी ने ही खुद हटाया और लोकतन्त्र को बहाल करते हुए 1977 में लोकसभा चुनाव कराये जिसमें वह बुरी तरह हारीं मगर इन चुनावों में भारत उत्तर और दक्षिण दो ध्रुवों में सीधे-सीधे बंट गया। दक्षिण भारत के सभी राज्यों की एक सीट को छोड़कर शेष सभी पर कांग्रेस पार्टी की विजय हुई और उत्तर, पश्चिमी व पूर्वी भारत में इसका सूपड़ा साफ हो गया और यहां तक हुआ कि स्वयं इन्दिरा जी भी चुनाव हार गईं। अत: कांग्रेस पार्टी को लोगों ने इमरजेंसी लगाने की सजा सुना दी अत: कांग्रेस को स्पष्ट होना चाहिए कि वह इस देश की आम जनता से ऊपर नहीं है और किसी भी ऐसी फिल्म को नहीं रोक सकती है जिसका सम्बन्ध इस देश में घटी घटनाओं से है। यह पुख्ता इतिहास का हिस्सा है मगर इन्दिरा जी के शासन का दूसरा पक्ष भी है जिसे इस देश का स्वर्णिम काल भी कहा जा सकता है क्योंकि 1969 से लेकर 1974 तक भारत ने उनके नेतृत्व में ही पाकिस्तान को बीच से चीरकर दो टुकड़े कर दिये। यह परमाणु शक्ति से सम्पन्न देश बना और सिक्किम का भारत में विलय करके इसने खुद को मजबूत किया। इसने औद्योगिक प्रगति के साथ कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त की और सबसे ऊपर दक्षिण एशिया की राजनीति को बदलकर रख दिया और वह दुनिया की सबसे शक्तिशाली महिला साबित हुईं।