केरल में जिस तरह माक्र्सवादियों द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं को निशाना बनाकर हत्या की जा रही है उससे इस राज्य की महान समावेशी संस्कृति रक्तरंजित हो रही है। पूरे देश में छोटे से राज्य त्रिपुरा के बाद केरल ऐसा अकेला राज्य है जहां माक्र्सवादियों की सरकार है। पश्चिम बंगाल से इनका प्रभुत्व समाप्त हो चुका है। पूरे उत्तर भारत में इस पार्टी के प्रभाव वाले केवल छोटे-छोटे द्वीप हैं। माक्र्सवादियों का दबदबा इनके गढ़ कहे जाने वाले राज्यों में इसलिए समाप्त हुआ क्योंकि वहां इन्होंने अपने राजनैतिक विरोधियों का मुंह बन्द करने के लिए हिंसा का सहारा लिया।
प. बंगाल में जिस तरह 36 वर्षों तक इस पार्टी ने राज किया उसका रहस्य अब खुल चुका है। वहां अपने विरोधी दलों के कार्यकर्ताओं को इस पार्टी ने जिस तरह हिंसक तरीकों से दबाया उसका ही परिणाम था कि वहां ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने उनका सफाया कर डाला। इस राज्य में माक्र्सवादियों ने किसी कम्युनिस्ट शासन की तर्ज पर ‘कम्यून शासन प्रणाली’ लागू करके राजनैतिक विरोधियों को सभी प्रकार की सुविधाओं से वंचित रखने का इन्तजाम किया और यहां तक किया कि इस राज्य से विरोधी दलों के कार्यकर्ताओं के जीवन पर हमेशा तलवार लटकती रहे।
विरोध के स्वरों को दबाने के लिए प. बंगाल में जो तरीका अपनाया गया वह इस राज्य की क्रान्तिकारी जनता के स्वभाव के विरुद्ध था। इसी का परिणाम था कि यहां से माक्र्सवादी विदा हो गये परन्तु केरल में जिस तरह संघ के कार्यकर्ताओं को निशाने पर रखा जा रहा है वह कोई विचार युद्ध न होकर राजनैतिक असहनशीलता का परिचायक ही है। इस राज्य की राजनीति बेशक हिन्दू-मुस्लिम आधार पर तय नहीं होती है क्योंकि माक्र्सवादी पार्टी इस राज्य में हिन्दू पार्टी समझी जाती है और अन्य विरोधी दलों जैसे कांग्रेस व अन्य क्षेत्रीय दलों का जनाधार गैर-हिन्दू नागरिक माने जाते हैं।
संघ की विचारधारा का केन्द्र हिन्दुत्व ही रहा है और वह इस दायरे में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है जिससे माक्र्सवादी बौखला रहे हैं और विचारों की लड़ाई को हिंसक बना रहे हैं। राज्य में जिस तरह मुस्लिम आबादी को मजहबी तास्सुब में ढालने की कोशिश की जा रही है वह भी किसी से छुपा नहीं है क्योंकि अभी तक अन्तर्राष्ट्रीय मुस्लिम आतंकवादी संगठन (आईएसआईएस) में शामिल होने के लिए इसी राज्य के कई नागरिकों के नाम सामने आ चुके हैं जिससे केरल इस्लामी जेहाद के भी नये केन्द्र के रूप में उभरता दिखाई पड़ रहा है। संघ इस राज्य में अपनी जड़ें जमाने के लिए 1967 से ही कोशिश करता रहा है। इसकी पहली कोशिश इसी वर्ष में हुई थी जब कालीकट में जनसंघ का अधिवेशन स्व. दीनदयाल उपाध्याय के नेतृत्व में हुआ था।
इसके बाद यहां ‘हिन्दू मुन्नानी’ संगठन की स्थापना करके संघ के विचारों को फैलाने की कोशिश की गई जिसमें सफलता नहीं मिली मगर हाल के वर्षों में संघ की विचारधारा के प्रति इस राज्य के लोगों में आकर्षण पैदा हुआ है जिसका सबूत राज्य विधानसभा में एक भाजपा विधायक का होना है। तिरुवनन्तपुरम लोकसभा सीट भी कांग्रेस ने भाजपा प्रत्याशी से बहुत कम मतों के अन्तर से जीती थी। अत: स्पष्ट है कि संघ की विचारधारा यहां अपना स्थान बना रही है जिससे माक्र्सवादियों को चिन्ता हो रही है और इसी की वजह से हिन्दुओं के बीच ही आपसी संघर्ष हो रहा है क्योंकि दोनों पार्टियों का जनाधार एक ही वर्ग है।
यही वजह है कि संघ के कार्यकर्ताओं के साथ ही माक्र्सवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं की भी जवाब में हत्या हो रही है। दोनों ही तरफ के लोग मारे जा रहे हैं। हाल ही में जिस तरह संघ के कार्यकर्ता राजेश की हत्या की गई उसका संज्ञान यहां के राज्यपाल तक ने लिया और माक्र्सवादी मुख्यमन्त्री विजयन को बुलाकर इसे रोकने के उपाय करने को कहा। इसके बाद मुख्यमन्त्री ने संघ व भाजपा नेताओं के साथ बैठक करके समायोजित तरीके ढूंढने पर विचार किया मगर असली सवाल यह है कि केरल जैसे राज्य में ऐसी असहिष्णुता क्यों जन्म ले रही है। अपने राजनैतिक अस्तित्व को बचाने के लिए क्यों माक्र्सवादी पार्टी उसी वर्ग के लोगों को निशाना बना रही है जो उसका वोट बैंक माने जाते हैं।
वैचारिक लड़ाई को विचार के स्तर पर ही लड़ा जाना चाहिए। संघ कोई लठैतों का संगठन नहीं है बल्कि यह राष्ट्रवाद को समर्पित विचारों से ओत-प्रोत स्वयंसेवकों का संगठन है। इसका मुकाबला करने के लिए हिंसा का सहारा किस तरह लिया जा सकता है और जब कोई भी पार्टी इस रास्ते पर उतरती है तो वह विचारों से खाली मानी जाती है। क्या कम्युनिस्टों की हालत आज यह हो गई है! केरल देश का पहला ऐसा राज्य है जहां स्वतन्त्रता के बाद कम्युनिस्टों की सरकार काबिज हुई थी, अगर इसके प्रभाव में अब संघ की स्पष्ट मौजूदगी की वजह से कमी आ रही है तो उसका मुकाबला हिंसा से कैसे किया जा सकता है?