तीन तलाक के विधेयक को लेकर जिस तरह राज्यसभा में गतिरोध बना हुआ है उससे यही साबित हो रहा है कि इसके गुण-दोषों की परीक्षा से कन्नी काटने की कोशिश की जा रही है। सबसे पहले इस पर विचार किया जाना जरूरी है कि यह विधेयक भारतीय संविधान की कसौटी पर पूरा खरा उतरे क्योंकि अन्ततः इसे इस रास्ते से गुजरना पड़ सकता है। सवाल मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने का बेशक है मगर यह संवैधानिक दायरे के भीतर ही दिया जा सकता है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि हिन्दू विवाह न किसी फौजदारी कानून में आता है और न ही किसी नागरिक अनुबन्ध (सिविल कान्ट्रेक्ट) में हिन्दू रीति नीति या विशेष विवाह कानून (स्पेशल मेरिज एक्ट) के तहत किया गया विवाह किसी प्रकार का अनुबन्ध नहीं होता है, यह एक दूसरे का साथ निभाने की सौगन्ध होती है जो प्रायः अग्नि के फेरे लेकर की जाती है परन्तु मुस्लिम धर्म में शादी किसी प्रकार की सौगन्ध नहीं होती बल्कि एक नागरिक अनुबन्ध होता है।
निकाहनामें पर दोनों पति–पत्नी हस्ताक्षर करते हैं और मेहर की रकम भी तय की जाती है। यह बाकायदा एेसा अनुबन्ध होता है जिसके टूटने की एवज में मेहर की रकम जमानत के तौर पर रखी जाती है जबकि हिन्दू परम्परा में एेसी किसी प्रकार की कोई व्यथस्था नहीं होती। अतः विधेयक में सबसे बड़ा कानूनी नुक्ता यह है कि तीन तलाक को फौजदारी कानून के दायरे में किस तरह लाया जा सकता है जबकि वह पूरी तरह नागरिक संहिता के दायरे में आता है। मगर इसके साथ यह भी हकीकत है कि तीन तलाक मुसलमानों के घरेलू नागरिक कानून शरीया का हिस्सा नहीं है। इसे गैर इस्लामी माना जाता है, मगर यह भी हकीकत है कि मुस्लिम समाज के आपसी ताल्लुकाती मामलात शरीया से ही निपटाये जाते हैं, सिवाय फौजदारी के मामलों को छोड़ कर क्योंकि भारतीय दंड संहिता सभी धर्मों के लोगों पर एक समान लागू होती है। तकनीकी पहलू यह भी है कि कोई भी फौजदारी कानून किसी धर्म या समुदाय विशेष के लिए नहीं बनाया जा सकता। अतः सबसे बड़ा पेंच यही आकर फंसा हुआ है कि तीन तलाक को फौजदारी के दायरे में न लाया जाये। इस पर ही सत्तापक्ष और विपक्ष आपस में उलझे हुए हैं।
सामान्य तौर पर कोई भी कानून तभी अमल में आता है जब किसी व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य दूसरे या सामने वाले की हालत बदल दे और उसे प्रताड़ित साबित करे। मगर तीन तलाक को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक करार दे दिया गया है। इसका मतलब यह निकलता है कि अगर कोई मुस्लिम पति अपनी पत्नी को तीन तलाक दे देता है तो उससे पत्नी की स्थिति पर कोई असर नहीं पड़ता, वे देनों बाकायदा उस अनुबन्ध से बन्धे रहेंगे जो निकाहनामें में लिखा गया है अर्थात उनकी शादी नहीं टूटेगी और वह बाकायदा मुस्तकिल रहेगी। जब शादी मुस्तकिल है और पत्नी की हैसियत नहीं बदली है तो कानून किस तरह लागू हो सकता है ? इसके खिलाफ यह दलील दी जा रही है कि तीन तलाक सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के आने के बावजूद जारी है जिसकी वजह से सरकार नया कानून एेसा लाना चाहती है कि कोई तीन तलाक कहने की हिम्मत ही न करे। आखिरकार कानून खास कर फौजदारी कानून समाज में व्यवस्था कायम करने की गरज से ही बनाये जाते हैं मगर वे एेसे कामों के लिए बनाये जाते हैं जो समाज में फैली आपराधिक मानसिकता और मनोवृत्ति पर लगाम लगा सकें। सवाल पैदा होना लाजिमी है कि विवाह सम्बन्धों को तोड़ना क्या आपराधिक कृत्य है? पति द्वारा पत्नी पर जुल्म ढहाये जाने के बारे में कई कानून पहले से ही मौजूद हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को हमें बहुत बारीकी से देखना चाहिए, तीन न्यायाधीशों ने बहुमत से दिये अपने फैसले में इस बाबत किसी प्रकार का कोई नया कानून बनाने की हिदायत नहीं दी। इसकी मुख्य वजह यह हो सकती है कि तीन तलाक के बारे में कानून बना कर शरीया के दायरे में प्रवेश हो सकता है जबकि संविधान मे मुसलमानों को शरीया के तहत अपने सामाजिक व धार्मिक रस्मो–रिवाज और रवायतें निभाने की छूट है। अल्पमत के दो न्यायाधीशाें ने भी अपनी मुख्तलिफ राय देते हुए कहा था कि विधायिका शरीया के हवालों का ध्यान रखते हुए पूरे मामले पर बड़ी सतह पर सोचे। अल्पमत के न्यायाधीशों ने तीन तलाक को गैर इस्लामी कहने से गुरेज किया।
दीगर सवाल यह है कि मुस्लिम नागरिकों की अलग आचार संहिता के रहते किस तरह धार्मिक मामलों में दखलन्दाजी की जा सकती है? यह काम तभी हो सकता है जबकि अलग–अलग धर्मों के मानने वाले लोगों के लिए अलग आचार संहिता न हो और सभी पर एक समान नागरिक संहिता लागू हो। गंभीर विषय यही है, तीन तलाक को असंवैधानिक कहने का असली मकसद शरीया में दखलन्दाजी करने का बिल्कुल नहीं रहा है। मगर हमें यह सोचना चाहिए कि इस्लाम अपने वक्त का एेसा धर्म था जिसमें सामाजिक सुधार का जज्बा छिपा हुआ था। स्त्रियों को सम्पत्ति में अधिकार इस्लाम शुरू से ही देता है। विधवा विवाह की रवायत को यह मानता है। 1400 साल पहले यह कम क्रान्तिकी काम नहीं रहा होगा। मगर समय के साथ–साथ कुछ न कुछ बुराइयां भी समाज के वजनदार लोग अपने हिसाब से करने में कामयाब हो जाते हैं। तीन तलाक एेसी ही बुराई है, मगर भारत में हिन्दू कोड बिल में स्त्री को सम्पत्ति में अधिकार देना और विधवा विवाह के लिए आन्दोलन चलना इसी का प्रभाव रहा है। अतः हमें अब आगे की तरफ बढ़ना चाहिए और खुद को बदलते वक्त का गवाह बनाना चाहिए।