दिल्ली के चुनावों को लेकर जो विभिन्न एक्जिट पोल हुए हैं उनमें वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी ‘आप’ को ही पुनः सरकार बनाते हुए दिखाया जा रहा है। इसका सीधा मतलब यही निकलता है कि इसे चुनौती देने वाली प्रमुख पार्टी भाजपा का खड़ा किया गया एजैंडा दिल्ली के मतदाताओं को नहीं भाया और उन्होंने मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व को अपना पूर्ण समर्थन देने का फैसला किया। प्रश्न यह है कि दिल्ली के चुनावों में भाजपा और आप के एजैंडे में फर्क क्या था? भाजपा ने दिल्ली के शाहीन बाग में हो रहे नागरिकता कानून के विरोध में आन्दोलन को जिस तरह चुनावी मुद्दा बनाने हुए राष्ट्रवाद को केन्द्र में लाने की कोशिश की वह प्रयोग सफल नहीं हो पाया।
यह मुद्दा केजरीवाल की पार्टी के इस मुद्दे के विरोध में खड़ा किया गया था कि दिल्ली में शिक्षा व स्वास्थ्य और परिवहन को लेकर उनकी सरकार ने जो कार्य किये हैं उसका जवाब उनकी विरोधी पार्टियां दें। इसके साथ ही बिजली, पानी व सड़क को लेकर पिछले पांच सालों में केजरीवाल सरकार ने जो कार्य दिल्ली में किये हैं उनका जवाब भाजपा को देना चाहिए। भाजपा ने इसका जवाब शाहीन बाग आन्दोलन से देना बेहतर समझा और इस पर राष्ट्रावाद का जामा भी पहना दिया। यह राष्ट्रवाद नागरिकता कानून के समर्थन और विरोध में सिमट कर रह गया जबकि वास्तव में राष्ट्रवाद का इस कानून से कोई लेना-देना नहीं है। भारत महात्मा गांधी के राष्ट्रवाद पर चलने वाला देश है जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों को ही बराबरी पर रख कर देखने की नीयत रही है।
राष्ट्रवाद का धर्म या मजहब से भी कोई लेना-देना नहीं रहता। भारतीय होने का भी धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। मगर दिक्कत तब हो गई जब कुछ अति उत्साही लोगों ने राष्ट्रवाद को धर्म या मजहब की सीमाओं में बांध कर पेश करने की कोशिश की और इसे तल्ख अन्दाज में जंगी तेवरों के साथ पेश कर डाला। केजरीवाल ने इस परिस्थिति को परखने में जरा भी गलती नहीं की और उन्होंने स्वयं को इस विवाद से शुरू से दूर रखा और साफ कर दिया कि स्वयं राष्ट्रवादी कहने वाले लोग भी उनकी पार्टी की आर्थिक नीतियों का समर्थन करते हुए उन्हें पुनः सत्ता सौंप सकते हैं। इसके लिए उन्होंने प्रारम्भ में ही नारा दे डाला था कि यदि उनकी सरकार ने पिछले पांच सालों में काम किया है तो उन्हें जनता पुनः वोट दे अन्यथा नहीं दे।
वास्तव में यह लोकतन्त्र में हिम्मत का काम था। ऐसा पहली बार हो रहा था कि कोई नेता यह सरेआम ऐलान करे कि अगर उसने काम किया है और जनता की अपेक्षाओं पर वह खरा उतरा है तो उसकी मजदूरी उसे दी जाये। यह ऐसी चुनौती थी जिसे केजरीवाल विरोधियों को ठीक सामने से लेना था। मगर इसका तोड़ भाजपा ने राष्ट्रवाद के रूप में निकाला। यह एक तीर से दो शिकार करने की तरह था। केजरीवाल के पुराने रिकार्ड को खंगाल कर जब उन राष्ट्रीय मुद्दों को सामने लाया गया जिनमें दिल्ली के मुख्यमंत्री रक्षात्मक हो सकते थे तो आप पार्टी के नेताओं ने राज्य की समस्याओं का हवाला देकर उनका मुकाबला किया और भाजपा को निरुत्तर करने का प्रयास भी किया। जाहिर है कि जिस तरह चुनाव से दो दिन पहले ही राज्य के उप मुख्यमन्त्री सिसोदिया के पुराने ओएसडी के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में सीबीआई ने कार्रवाई की उसे भी मतदाताओं ने राजनैतिक उखाड़-पछाड़ के नजरिये से देखा।
हालांकि केजरीवाल सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई मुद्दा इन चुनावों में नहीं उठाया जा सका परन्तु जो मुद्दा सबसे बाद में उठाया भी गया उसका असर भी सियासत के दांव-पेंच में दब गया। दूसरी तरफ श्री केजरीवाल ने पूरे चुनाव प्रचार में जिस शिष्ट भाषा में और विनम्रता का परिचय दिया और बार-बार अपनी सरकार के कामों को गिनाने का ही दौर जारी रखा उसका असर मतदाताओं पर सकारात्मक पड़ा, इसके साथ ही भाजपा पूरे चुनावों में श्री केजरीवाल के खिलाफ अपनी पार्टी का दिल्ली में कोई मजबूत चेहरा भी आगे नहीं रख सकी। जबकि भाजपा समेत कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता केजरीवाल को ही अपने निशाने पर लगातार रखते रहे..।
अतः पूरा चुनाव श्री केजरीवाल के व्यक्तित्व के चारों तरफ ही लड़ा गया। भाजपा ने जिस तरह अपने 11 मुख्यमन्त्रियों समेत केंद्रीय मन्त्रिमंडल के दिग्गजों को दिल्ली की नुक्कड़ सभाओं में उतारा उससे केजरीवाल के अजेय होने का ही अन्दाजा लगा। चुनावों में ये तथ्य बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। अतः हार-जीत भी इन्हीं पर आकर टिक जाती है।