नीति आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में अगले साल 21 शहरों में भूजल खत्म होने की आशंका व्यक्त की है। यद्यपि यह भी कहा गया है कि इन शहरों में पानी की उपलब्धता भूमिगत जल स्रोतों के अलावा भूजल स्रोतों पर आधारित होने के कारण चिंता की बात नहीं है। जिन शहरों में भूजल समाप्त होने की आशंका जताई गई है उनमें दिल्ली, गुरुग्राम, गांधीनगर, यमुनानगर, बेंगलुरु, इंदौर, अमृतसर, लुधियाना, जालंधर, मोहाली, पटियाला, अजमेर, बीकानेर, जयपुर, जोधपुर, चेन्नई, आगरा, गाजियाबाद इत्यादि शामिल हैं।
नीति आयोग की रिपोर्ट बड़े खतरे का संकेत दे रही है। भारत में पुराने जमाने में तालाब, बावड़ी और नलकूप थेे, तो आजादी के बाद बांध और नहरें बनाईं। वक्त के साथ-साथ आबादी बढ़ने से जंगलों और खेतों की देनदारियां बढ़ी हैं। बारिश वही है या जलवायु में परिवर्तन के चलते कहीं थोड़ी घटी या बढ़ी है। ऐसे में योजनाकारों पर दबाव बढ़ा है कि पानी की बर्बादी रोकी जाए और भंडारण के पुख्ता इंतजाम किए जाएं।
जहां तक देश में पानी से बर्बादी की बात है, तो यह देश के पूर्वी भाग में कई साल से देखने को मिलती रही है। गंगा और ब्रह्मपुत्र के तांडव से कौन अनभिज्ञ है। इस सच्चाई को 1972 में ही महसूस कर लिया गया था और गंगा-कावेरी के बीच गादलैंड केनाल का स्वप्न देखा गया था। वर्ष 1982 में नेशनल वाटर डवलपमैंट अथारिटी का गठन कर लिया गया था। तमाम अध्ययनों और सर्वेक्षणों के बाद जो स्वरूप विकसित हुआ उसके अनुसार देश की विभिन्न नदियों के बीच तीस लिंक बनाकर बाढ़ की विभीषिका को सूखे के उपचार में तब्दील किया जा सकता है।
वर्ष 1998 की एनडीए सरकार ने इस ओर अपनी रुचि प्रदर्शित की थी किन्तु अभी तक इस दिशा में बात आगे नहीं बढ़ी। कभी धन का अभाव, कभी राज्य सरकारों में सहमति नहीं बनने तो कभी स्वयंसेवी संगठनाें और पर्यावरणविदों के एक वर्ग की आशंकाओं और विरोधों के चलते कुछ नहीं हुआ। अंततः 2012 में सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र से पूछ ही लिया कि नदियों को जोड़ने के मामले पर क्या कर रही है। जहां तक इस मामले में पहल और परिणामों की बात है तो इस दिशा में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा अपने स्तर पर नर्मदा और शिप्रा नदी को जोड़ने से मालवा क्षेत्र के किसानों के चेहराें पर मुस्कान बढ़ गई थी।
आंकड़े बताते हैं कि धरती पर पानी की कुल मात्रा 13,100 लाख क्यूविक किलोमीटर है। इस पानी की लगभग 97 प्रतिशत मात्रा समुद्र में खारे पानी के रूप में और तीन प्रतिशत मात्रा अर्थात 390 लाख क्यूविक किलोमीटर पेयजल के रूप में धरती पर अनेक रूपों में मौजूद है। ऐसे में हमें भविष्य के लिए सचेत रहना होगा। जिन शहरों में जल संकट की आशंका व्यक्त की गई है, स्पष्ट है कि वहां भूमिगत जल का अंधाधुंध दोहन हो रहा है। गुरुग्राम, जालंधर, लुधियाना, अमृतसर और गाजियाबाद घनी आबादी वाले औद्योगिक शहर हैं, वहां पानी की खपत काफी अधिक है। दिल्ली हर वर्ष बढ़ती आबादी से त्रस्त है। राजस्थान के शहरों में पहले से पानी की किल्लत है। दक्षिण भारत की अपनी समस्याएं हैं।
जल को जीवन के पर्याय के रूप में प्रतिष्ठा दी गई है। पानी को सहेजने की प्राचीन संस्कृति रही है। इसकी पवित्रता को बचाए-बनाए रखने के लिए तरह-तरह के प्रयास किए जाते रहे हैं मगर विकास की आंधी ने उस संस्कृति को ही उड़ा कर रख दिया है। न अब वर्षा जल संचयन का प्रबंध रहा, न नदियों-तालाबों जैसे पौराणिक जल स्रोतों को सहेजने का रिवाज। भूजल के अंधाधुंध दोहन पर जल संबंधी सारी बुनियादी जरूरतें टिक गई हैं। यही वजह है कि पानी को लेकर हर जगह हाहाकार जैसी स्थिति पैदा हो जाती है। इस स्थिति से पार पाने के लिए उपाय किए जाने चाहिए। भूमिगत जल में प्रदूषण की मात्रा बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि देश के बड़े शहरों में लोगों को शुद्ध पानी भी नसीब नहीं हो रहा।
यह विडम्बना ही है कि भारत दुिनया का एक जल समृद्ध देश होने के बावजूद भारत में उचित जल प्रबंधन आैर योजनाओं के सही निष्पादन के अभाव में देश की बड़ी जनसंख्या जल से वंचित है। जल का उचित बंटवारा भी नहीं हो रहा। पाठकों को याद हाेगा कि ब्राजील के साऊ पाउले में सरकार पानी की आपूर्ति पर राशनिंग करती है। अमेरिका के कैलोफोर्निया में लगातार सूखा पड़ता है। भारत-बंगलादेश सहित कई एशियाई क्षेत्रों में भूजल स्तर पाताल में पहुंच चुका है। अत्यधिक दोहन, कम बारिश से जल स्रोत सूख चुके हैं। जल या जंग की नौबत आने लगी है। पेयजल संकट के समाधान के लिए जल शक्ति मंत्रालय का गठन किया गया है, उसे ठोस पहल तो करनी ही पड़ेगी, साथ ही देश के लोगों को भी जल संचय के लिए आगे बढ़ना होगा क्योंकि जल के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती।