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भेड़िया धसान चीन को खदेड़ो

चीन ने सीमा पर शान्ति व सौहार्द बनाये रखने और आपसी भरोसा बढ़ाने से सम्बन्धित भारत के साथ हुए छह समझौतों को तार-तार करते हुए जिस प्रकार लद्दाख में खूनी खेल खेला है

चीन ने सीमा पर शान्ति व सौहार्द बनाये रखने और आपसी भरोसा बढ़ाने से सम्बन्धित भारत के साथ हुए छह समझौतों को तार-तार करते हुए जिस प्रकार लद्दाख में खूनी खेल खेला है उससे उसका वह असली चेहरा बेनकाब हो गया है जिसे युद्ध की  भाषा में ‘भेड़ि​या धसान’ कहते हैं। रणक्षेत्र में यह तकनीक ऐसे असभ्य और निर्लज्ज लड़ाकू समूह अपनाते हैं जिन्हें सेना के दायरे में नहीं रखा जा सकता। सेना का अर्थ होता है युद्ध धर्म के नियमों से बन्धे अनुशासित दक्ष लोग। भारत के वीर सैनिकों ने मातृभूमि की रक्षा में भेड़िया धसान का मुकाबला करते हुए जिस तरह अपना बलिदान दिया है उससे प्रत्येक भारतवासी के मन में चीन के प्रति वितृष्णा का भाव और गहरा हुआ है परन्तु  विडम्बना  यह है कि यह देश भारत का ऐसा पड़ोसी है जिसके साथ चार हजार किलोमीटर की भू-सीमा है। अतः हमें बहुत सावधानी के साथ इस भेड़ियावृत्ति का अपनी ‘सिंहवृत्ति’ के साथ मुकाबला करना है। चीन ने भारत को सिर्फ 1962 में ही धोखा नहीं दिया बल्कि 2020 में भी इसकी पीठ में छुरा घोंप कर भारतीय लद्दाख की गलवान घाटी को भी अपना बताने की धृष्टता की है। 2014 से अब तक प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के साथ 18 बार बातचीत करने के बावजूद चीन के राष्ट्रपति शी-जि​न-पिंग का भारत के प्रति यदि यह व्यवहार है तो विचार करना होगा कि इसे सबक सिखाने के लिए कौन सा रणनीतिक व कूटनीतिक रास्ता पकड़ा जाये जिससे हमारे जांबाज सैनिकों का बलिदान व्यर्थ न जाये।
 दरअसल लद्दाख की सीमाएं उस तिब्बत से मिलती हैं जिसे 2003 में नई दिल्ली में बैठी वाजपेयी सरकार ने चीन का अंग स्वीकार कर लिया था। यह ऐतिहासिक गलती थी क्योंकि 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण सिर्फ इसी वजह से किया था कि हम तिब्बत के लोगों के अधिकारों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय मंचों तक पर आवाज उठा रहे थे।  तिब्बत और भारत के सम्बन्ध सम्राट अशोक के काल से ही रोटी-बेटी के उसी प्रकार के थे जिस प्रकार आज भारत-नेपाल के हैं। अतः समझा जा सकता है कि चीन किस वजह से नेपाल को अपनी गिरफ्त में लेने का जाल बिछा रहा है। इसके पीछे उसकी मंशा भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी दादागिरी थोपने की है क्योंकि पाकिस्तान को पहले से ही उसने अपनी कोख में दबा रखा है। उसके रास्ते में सिर्फ भारत ही एक स्वतन्त्र महाशक्ति के रूप में आता है जिसे वह अपनी असभ्य हरकतों से डराना चाहता है। परन्तु भारत का मिजाज शान्ति पूर्ण जरूर है मगर भीरू नहीं है।  इसे ईंट का जवाब पत्थर देने से देना आता है, जिसका प्रमाण भारत के बीस सैनिकों की शहादत के बदले में चीन के 46 सैनिकों का हताहत होना है।  परन्तु भारत चीन की तरह स्वछन्दचारी नहीं है। अतः हमारे विदेशमन्त्री एस. जयशंकर ने चीनी विदेशमन्त्री को फोन करके पूछा है कि चीन नियन्त्रणरेखा का सम्मान करना कब सीखेगा। मगर देखिये ड्रैगन की हिमाकत कि उसने पहले ही बयान जारी कर दिया कि उसके सैनिक भारतीय इलाके में नहीं गये बल्कि भारतीय सैनिकों ने नियन्त्रण रेखा का उल्लंघन किया। यदि ऐसा ही था तो 6 जून को फिर दोनों देशों की फौजों के लेफ्टि. जनरल स्तर के अफसर क्या छह घंटे तक चाय पीने के लिए बातचीत कर रहे थे ? 
इस बैठक में चीन ने स्वीकार किया था कि उसके सैनिक गलवान घाटी के भारतीय इलाके को खाली कर देंगे और नियन्त्रण रेखा से पीछे चले जायेंगे। लेकिन चीन ने उल्टा किया और अपनी सरहदों में खड़े भारतीय सैनिकों पर हमला बोल दिया। जबकि पेगोंग- सो झील इलाके में अभी भी चीनी सैनिक आठ किलोमीटर अन्दर घुसे हुए हैं। इससे साफ जाहिर है कि चीन भारतीय इलाके हड़प कर अपनी रणनीतिक स्थिति मजबूत बनाना चाहता है क्योंकि गलवान घाटी से होते हुए ही भारतीय सीमा में बन रही वह 255 किलोमीटर लम्बी सड़क काराकोरम दर्रे के करीब दौलतबेग ओल्डी तक जाती है।
  अतः चीन की मंशा तो जाहिर है कि क्यों वह नियन्त्रण रेखा की स्थिति में परिवर्तन चाहता है ? परन्तु भारत को चीन की बदनीयती को जाहिर करते हुए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उसे अकेला खड़ा करना होगा। भयंकर  कौरोना वायरस को पूरी दुनिया मे फैलाने के इल्जाम से चीन पहले से ही कमजोर ‘विकेट’ पर खड़ा हुआ है।  चाहे हिन्द महासागर हो या प्रशान्त सागर क्षेत्र अथवा दक्षिणी चीन सागर सभी इलाकों में उसने सामरिक प्रतिद्वन्दिता का अखाड़ा खोल रखा है और अमेरिका के साथ उसकी लागडांट चल रही है। यह माहौल क्या वैसा ही नहीं है जैसा कि 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद बना था और चीन के साथ केवल पाकिस्तान खड़ा मिला था। पूरी दुनिया ने तब भारत का साथ दिया था और चीन को अपनी फौजें वापस भेजनी पड़ी थीं। भारत की कूटनीति की सफलता इसी बात पर निर्भर करती है कि वह दुनिया को यह समझाये कि चीन की सीनाजोरी विनाशकारी युद्ध का माहौल नहीं बना सकती और भारत के धैर्य की परीक्षा चीन लगातार नहीं ले सकता। शान्ति और सौहार्द बनाये रखने के लिए जरूरी है कि दोनों देशों के बीच एक नया युद्ध निषेध (नो वार पैक्ट) समझौता हो क्योंकि चीन को इस गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए कि वह घोषित परमाणु शक्ति है बल्कि यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत दुनिया का छठा परमाणु शक्ति सम्पन्न देश है बेशक 1993 में ही चीन के साथ जो समझौता हुआ था उसमें एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में दखल न देने का उल्लेख है और सीमा पर न्यूनतम फौज रखने का भी जिक्र है मगर ताजा घटना को देख कर चीन की नीयत पर भरोसा नहीं किया जा सकता अतः दोनों देशों के बीच सीमा विवाद के (अन्तर्राष्ट्रीय सीमारेखा) के अभी तक हल न होने की वजह से चीन के हाथ बांधने जरूरी हैं।

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