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महिला आरक्षणः धनुष कौन तोड़ेगा!

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कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने महिला आरक्षण विधेयक के समर्थन में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी को खत लिखकर राष्ट्रीय राजनीति में फिर से तूफान खड़ा कर दिया है और सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा को धर्म संकट में फंसा दिया है। इसकी वजह यह है कि भाजपा महिला आरक्षण विधेयक को लेकर शुरू से ही दुविधा में रही है। यही वजह थी कि देवेगोड़ा शासनकाल के दौरान इस पार्टी की नेता सुश्री उमा भारती ने इस विधेयक की प्रतियां भरी संसद में फाड़ डाली थीं मगर कांग्रेस पार्टी के सहयोगी कहे जाने वाले जनता दल या समाजवादी खेमे की पार्टियां भी ऐसे विधेयक के विरोध में रही हैं। मनमोहन सरकार के सत्ता में रहते जब 2020 में यह विधेयक राज्यसभा में पारित हुआ था तो इसी पक्ष के सांसदों के हंगामे को देखते हुए पूरे सदन में अर्द्ध सुरक्षा बलों के साये में मतदान कराना पड़ा था। यह कार्य पूर्व उपराष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी की सदारत में राज्यसभा में हुआ था मगर सबसे सनसनीखेज यह हकीकत थी कि कांग्रेस, भाजपा व कम्युनिस्टों ने एक साथ इस विधेयक के पक्ष में मत डालकर देश के मतदाताओं को हैरत में डाल दिया था।

इस मुद्दे पर सरकार और विपक्ष के बीच का भेद समाप्त हो गया था और ऐसा मंजर बना था मानो लोकसभा में भी इसी एकता का मुजाहिरा होगा मगर ऐसा हुआ नहीं क्योंकि यहां श्री लालू प्रसाद, मुलायम सिंह और शरद यादव की पार्टियों ने इसे समर्थन नहीं दिया और पिछड़े वर्ग की महिलाओं को भी आरक्षण में ‘आरक्षण’ देने का तर्क दिया। परिस्थितियों में 2017 में कोई गुणात्मक अंतर आया हो ऐसा मानना फिजूल है क्योंकि 2010 में भी भाजपा के भीतर से इसके विरोध में स्वर उठे थे और कांग्रेस के एक तबके का भी विचार था कि केन्द्र में उसकी विभिन्न सहयोगी दलों की मदद से चल रही सरकार के वश में यह नहीं है कि वह प्रमुख दलों के बीच मतैक्य स्थापित कर सके परन्तु श्रीमती गांधी तब भी इस विधेयक के पक्ष में पुरजोर तरीके से थीं और कहती रही थीं कि यदि कांग्रेस का लोकसभा में अपने बूते पर बहुमत होता तो वह अवश्य विधेयक को पारित कराने में देरी नहीं करती। इसी वजह से इस विधेयक को छोड़ दिया गया और पिछली 15वीं लोकसभा 2014 में भंग हो गई, मगर अब श्रीमती गांधी ने श्री नरेन्द्र मोदी को लिखे अपने खत में तर्क दिया है कि लोकसभा में उनकी पार्टी का पूर्ण बहुमत है जिसका लाभ उठाते हुए महिला आरक्षण विधेयक को सबेरे का सूरज दिखाया जाये। जहां तक कांग्रेस पार्टी का सम्बन्ध है वह लोकसभा में इस मुद्दे पर सरकार का समर्थन करेगी।

बहुत होशियारी के साथ उन्होंने महिला आरक्षण के धनुष को तोड़ने की मोदी सरकार को चुनौती दे दी है। अतः मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद पहली बार सोनिया गांधी ने राजनीतिक पत्तों की बाजी अपने हाथ में रखने का जोखिम उठाया है। यह सर्वविदित है कि केन्द्र की भाजपा नीत सरकार में गिरिराज सिंह जैसे मन्त्री विद्यमान हैं जिनके महिलाओं के बारे में विचार किसी से छुपे नहीं हैं और कांग्रेस के खेमे में भी कई ऐसे छुपे रुस्तम हैं जो महिला आरक्षण के मुद्दे को गैर-जरूरी तक कह चुके हैं, लेकिन मूल प्रश्न यह है ​ क्या इसके माध्यम से देश में महिलाओं का राजनीतिक सशक्तीकरण होने में वाकई में मदद मिलेगी? यह प्रश्न गंभीर है जिसका जवाब श्रीमती सोनिया गांधी ने 2010 में यह कहते हुए दिया था कि देश की 50 प्रतिशत आबादी के हिस्से को राजनीतिक प्रक्रिया में सक्रिय रूप से लाने के लिए किसी न किसी को तो जोखिम उठाना ही पड़ेगा। यह विधेयक जिसे संविधान का 108वां संशोधन विधेयक जाना जाता है, यह प्रावधान भी करता है कि लोकसभा व विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए जितना आरक्षण है उसका 33 प्रतिशत इन समूहों की महिलाओं के लिए आरक्षित किया जायेगा। इस प्रावधान से भी इन जातियों के पुरुष राजनीतिज्ञों में खलबली थी और उत्तर प्रदेश की दलित मूलक पार्टी समझी जाने वाली बहुजन समाज पार्टी तक इसके समर्थन में खुलकर नहीं आ पाई थी।

वैसे गौर से देखा जाये तो देश का रक्षामन्त्री एक महिला को बनाने वाली मोदी सरकार को महिला आरक्षण पर क्यों ऐतराज होना चाहिए और कांग्रेस द्वारा बढ़ाये गये सहयोग के हाथ का लाभ क्यों नहीं उठाना चाहिए, लेकिन राजनीतिक वास्तविकता वह नहीं होती जैसी ऊपर से दिखाई पड़ती है। यदि ऐसा होता तो लोकपाल विधेयक अभी तक सरअंजाम न चढ़ जाता, मगर राज्यसभा में आधी रात के बाद भी बहस में उलझे इस विधेयक का हश्र हम सभी देख रहे हैं। महिला आरक्षण को टालने के लिए एक से बढ़कर एक ऊल-जुलूल प्रस्ताव कालान्तर में आते रहे हैं। एक प्रस्ताव यह आया था कि क्यों न लोकसभा की वर्तमान सदस्य संख्या में ही 33 प्रतिशत का इजाफा कर दिया जाये। दूसरा प्रस्ताव यह आया था कि राजनीतिक दल चुनावों का टिकट देते समय ही 33 प्रतिशत टिकट महिला प्रत्याशियों को दें, लेकिन हकीकत यह है कि एक महिला को आज भी राजनीति में बाकायदा प्रवेश करने के लिए किसी पुरुष के मुकाबले तीन गुनी ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है और ऊपर से सामाजिक तानों के बाण सुनने पड़ते हैं, परन्तु यह भी सच है कि महिलाओं के आरक्षण से हम राजनीति के स्तर में सुधार की गांरटी नहीं दे सकते।

वर्तमान लोकसभा में भी सात प्रतिशत के लगभग महिला सांसद हैं मगर सत्तापक्ष के खेमे में बैठी हुई महिलाएं केवल कागज पढ़कर ही शून्यकाल तक में अपनी जुबान खोलने का माद्दा रखती हैं जबकि विपक्ष में सुष्मिता देव जैसी ही इक्का-दुक्का सांसद राष्ट्रीय समस्याओं से परिचित नजर आती हैं। हमने लोकसभा अध्यक्ष पद तक पर महिलाओं को आरूढ़ किया मगर सदन चलाने में उनकी योग्यता पर सवाल उठते रहे हैं मगर इसका मतलब यह नहीं निकलता है कि आरक्षण का लाभ नहीं होगा बल्कि इसका प्रत्यक्ष लाभ यह होगा कि महिलाओं में अपना अधिकार प्राप्त करने का भाव जागृत होगा और उन्हें राजनीति में आने के लिए किसी का कृपापात्र होना जरूरी नहीं रहेगा। शुरू में बेशक परेशानियां आ सकती हैं और प्रतिष्ठित राजनीतिक परिवारों की महिलाएं ही यह लाभ उठाने में आपाधापी कर सकती हैं मगर इसके खिलाफ जमीन से ही विद्रोह भड़कना भी स्वाभाविक तौर पर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच से ही उपजेगा। इसे नहीं रोका जा सकता। पिछड़े वर्ग की महिलाएं इसी प्रक्रिया के तहत ऊपर आयेंगी मगर असल सवाल राजनीतिक इच्छा शक्ति का है।

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