जम्मू-कश्मीर राज्य में अलगाववादियों की कार्रवाइयों को रोकने में तैनात सेना की भूमिका का राजनीतिकरण किसी भी तौर पर नहीं किया जा सकता। भारतीय प्रजातन्त्र की रखवाल सेना की भूमिका पूरी तरह गैर राजनीतिक रहते हुए इस प्रणाली की रक्षा करने की है। देश की आन्तरिक व बाह्य सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध सेना को भारत में कभी भी राजनीतिक चश्मे से नहीं देखा गया है। यह देश की आन्तरिक सुरक्षा के लिए तभी किसी राज्य या स्थान में जाती है जब वहां की नागरिक सरकार इसकी मांग करती है। नागरिक प्रशासन के काबू से जब हालात बाहर होने लगते हैं तो सेना की मदद संवैधानिक रूप से ली जाती है और तब वह परिस्थितियों के अनुरूप अपने कत्र्तव्य का निर्वाह करती है। ऐसा ही पिछले दिनों कश्मीर घाटी में हो रहे उपचुनाव के दौरान किया गया था जब वहां मतदान प्रक्रिया को सुचारू रखने के लिए सेना की तैनाती भी की गई थी। घाटी में पत्थरबाजों के कहर से निपटने के लिए और खूनखराबा रोकने के लिए सेना के मेजर लितुल गोगोई ने जो तरीका निकाला उसे लेकर कुछ राजनीतिक दलों और कथित मानवाधिकार संगठनों ने विवाद का विषय बना दिया। मेजर ने पत्थरबाजों के बीच से ही एक व्यक्ति को पकड़ कर अपनी जीप के आगे बांधा और उसे आगे रखते हुए सेना के जवान मतदान केन्द्र पर तैनात चुनाव कर्मियों को सुरक्षित बाहर निकाल लाये। इससे पत्थरबाजों के हौंसले पस्त हुए और उन्हें अपनी कार्रवाई बन्द करनी पड़ी मगर इसके साथ-साथ सेना को भी बल प्रयोग नहीं करना पड़ा। सेना यदि उग्र पत्थरबाजों पर कार्रवाई करती तो गोली भी चल सकती थी और जान-माल का नुकसान हो सकता था। ऐसा होने से रोकने के लिए मेजर गोगोई ने सूझबूझ का परिचय दिया।
सवाल जो सबसे बड़ा है वह यह है कि भारत के कश्मीरी नागरिकों और भारतीय सेना के जवानों की जान बचाने के लिए मेजर साहब ने यह तकनीक अपनाई। फिर इस पर इतनी हायतौबा क्यों मचाई जाये? क्यों अरुन्धति राय जैसी लेखिका कश्मीर में ही जाकर पाकिस्तानी सेना की तारीफ के पुल बांधे और अपनी सेना के खिलाफ हिकारत फैलाये? अरुन्धति राय से क्या यह पूछा जा सकता है कि कश्मीर में जो लोग पत्थरबाजी करके सेना को लहूलुहान करने का प्रयास करते हैं, वह कौन से मानवाधिकार के नियम के तहत आता है। शान्तिपूर्ण प्रदर्शन का अधिकार भारत का संविधान हर नागरिक को देता है मगर हिंसक आन्दोलन के खिलाफ प्रशासन को आवश्यक कार्रवाई करने का हक भारत में संविधान में मिला हुआ है मगर दिक्कत यह है कि अरुन्धति राय जैसे लोग कश्मीर को भारत का हिस्सा तक मानने में ना-नुकर करते हैं और अलगाववादियों का समर्थन करने में अपनी शान समझते हैं। भारत की एकता और अखंडता के लिए समर्पित हम अपनी सेनाओं की आलोचना किस आधार पर कर सकते हैं। ऐसी आलोचना केवल वे लोग ही कर सकते हैं जिन्हें भारत के संविधान पर विश्वास नहीं है। मेजर गोगोई को यदि उनकी सूझबूझ के लिए सेना अध्यक्ष ने सम्मानित किया है तो यह सेना का आन्तरिक मामला है लेकिन जम्मू-कश्मीर में सेना की उपस्थिति को वहां के राजनीतिक दलों ने अपनी राजनीति चमकाने का जरिया बना लिया है।
सेना के जवानों पर उल्टे-सीधे आरोप लगाकर इन्होंने शुरू में मानवाधिकार का फतवा जारी किया और उस सेना का इकबाल गिराने की कोशिश की जिसका लोहा पूरी दुनिया मानती है। इसके अनुशानप्रिय और इंसानियत के अलम्बरदार होने के सबूत पूरी दुनिया में फैले पड़े हैं। क्योंकि विश्व के विभिन्न देशों में जहां-जहां भी भारतीय सेना के जवान शान्ति सैनिकों के रूप में तैनात किये गये वहां-वहां ही उन्होंने शानदार कारनामे किये। भारत की सेना ने तो पड़ोसी देश पाकिस्तान के सैनिकों के साथ भी कभी अमानवीय व्यवहार नहीं किया। यहां तक कि इस मुल्क के आतंकवादी अजमल कसाब तक को वे सभी कानूनी हक दिये गये जो किसी अपराधी को मिले होते हैं मगर अलगाववादी तत्व सेना के किरदार को दागदार दिखाने में जमीन-आसमान एक कर देना चाहते हैं। वे यह भूल रहे हैं कि मेजर गोगोई की यह कार्रवाई एक वीरतापूर्ण कारनामा था क्योंकि उनके चारों तरफ अपने ही लोग थे और उनमें से किसी एक की भी मौत होती तो भारतीय की ही होती लेकिन इस मामले की पुलिस जांच भी होगी। जम्मू-कश्मीर पुलिस के बड़े अफसर इसकी जांच करेंगे। यह कार्रवाई कई प्रश्नों को जन्म देती है, जिनका जिक्र मैं कभी बाद में करूंगा।