क्या गजब का संयोग है कि कर्नाटक के वर्तमान भाजपा मुख्यमंत्री श्री बी.एस. येदियुरप्पा का चुनाव क्षेत्र ‘शिकारी पुरा’ है जहां से वह 2018 के विधानसभा चुनावों में चुन कर आये थे और उन्होंने अपनी लोकसभा की सदस्यता को कालान्तर में त्यागा था येदियुरप्पा को कर्नाटक का दो दिन का मुख्यमंत्री बनने का विशेष गौरव भी 2018 में विधानसभा चुनावों के बाद प्राप्त हुआ था हालांकि इन चुनावों में भाजपा को कर्नाटक की 224 सदस्यीय विधानसभा में सर्वाधिक सीटें 104 प्राप्त हुई थीं मगर वह राज्यपाल वजूभाईवाला का वरद हस्त प्राप्त होने के बावजूद केवल दो दिन की ही सरकार बना पाये थे क्योंकि तब राज्य की दो प्रमुख पार्टियों कांग्रेस व जनता दल (सै) ने तुरत- फुरत हाथ मिला कर सरकार बनाने का दावा राज्यपाल के समक्ष पेश कर दिया था।
क्योंकि इन दोनों दलों के गठबन्धन को विधानसभा में स्पष्ट बहुमत था परन्तु राज्यपाल महोदय ने तकनीकी कानूनी पेचीदगियों की छांव में भाजपा नेता श्री येदियुरप्पा को विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी का नेता होने के नाते सरकार बनाने का न्यौता देते हुए कहा था कि वह दो सप्ताह के भीतर अपना बहुमत सदन में सिद्ध कर सकते हैं। इस पर पूरी लड़ाई ने संवैधानिक स्वरूप ले लिया था और सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खुलवा कर कांग्रेस व जनता दल (सै) ने इस अवधि को याचिका दाखिल करने के दिन से केवल 24 घंटे के भीतर सरकार से अपना बहुमत साबित करने का अदालती आदेश ले लिया था।
परिणामस्वरूप श्री येदियुरप्पा ने बिना विधानसभा जाये ही अपना त्याग पत्र ठीक उसी प्रकार दे दिया था जिस प्रकार हाल-फिलहाल में महाराष्ट्र में भाजपा के मुख्यमंत्री श्री देवेन्द्र फड़णवीस ने दो दिन का ‘मराठा अधिपति’ होने के बाद दिया। मजेदार बात यह है कि महाराष्ट्र में तो शिवसेना ने भाजपा के साथ चुनाव लड़ कर संयुक्त गठबन्धन को मिले जनादेश के विरुद्ध जाकर भाजपा से अपना सम्बन्ध तोड़कर उन पार्टियों के साथ मिल कर ‘त्रिगुटी’ सरकार बनाई जिन्होंने आमने-सामने आकर चुनावी रण में एक दूसरे का मुकाबला किया था। ये दोनों पार्टियां कांग्रेस व श्री शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी थी।
अब इन तीनों पार्टियों की त्रिगुटी सरकार मुम्बई में चल रही है जिसके मुखिया शिव सेना के कर्ताधर्ता श्री ऊद्धव ठाकरे हैं परन्तु कर्नाटक में विकट नाटक हुआ जब इस वर्ष के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस व जनता दल (सै) दोनों का ही सूपड़ा साफ हो गया तो बेंगलुरु में राज करने वाले श्रीमान एच. डी. कुमारस्वामी की सरकार डगमगाने लगी और कांग्रेस एस व जद (सै) के इस गठबन्धन से टूट कर 17 विधायकों ने भाजपा का पल्ला थाम लिया। इनमें से 15 की सदस्यता विधानसभा अध्यक्ष ने मुल्तवी कर दी और उन्हें चालू विधानसभा के कार्यकाल तक चुनाव लड़ने से भी अयोग्य करार दे दिया।
अध्यक्ष के अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा से बाहर जाकर किये गये फैसले को सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त घोषित करते हुए सभी विधायकों को पुनः चुनाव लड़ने के काबिल समझा। जिसकी वजह से विगत 5 दिसम्बर को 15 सीटों पर उप चुनाव हुए। दो सीटों पर इस वजह से चुनाव नहीं हो सके क्योंकि इन सीटों पर 2018 के विधानसभा चुनावों में जीते कांग्रेसी विधायकों के खिलाफ हारे हुए भाजपा के प्रत्याशियों ने कर्नाटक उच्च न्यायालय में याचिका दायर करके इनके चुनाव को अवैध घोषित करने की अपील की हुई है।
यह अपील चुनावों में अवैध तरीके प्रयोग करने से सम्बन्धित है। इन दोनों विधायकों ने हालांकि कुमारस्वामी सरकार का समर्थन कर रहे अन्य 15 विधायकों के साथ ही दल–बदल करके और अपना इस्तीफा अध्यक्ष को सौंप करके विधानसभा में भाजपा को बहुमत के करीब लाने की करामात की थी जिसकी वजह से विगत जुलाई महीने में कुमारस्वामी सरकार गिर गई थी और श्री येदियुरप्पा ने पुनः मुख्यमंत्री की शपथ पूरी आन-बान-शान के साथ लेकर इस बार विधानसभा में अपना बहुमत भी साबित कर दिया था परन्तु इन 15 सीटों पर हुए उप चुनाव में भाजपा 12 सीटें जीत गई है और कांग्रेस केवल दो सीटें ही जीत पाई है।
विधानसभा की वर्तमान सदस्य संख्या अब बढ़ कर 223 हो गई है जिसमें भाजपा की ताकत एक निर्दलीय को मिला कर 118 हो गई है जबकि 15 में से जिस सीट पर अकेला निर्दलीय विधायक जीता है वह भी भाजपा का बागी प्रत्याशी है। इस प्रकार येदियुरप्पा को अब 2023 तक निष्कंटक राज करने का अधिकार मिल गया है। यदि गौर से देखा जाये तो यह विजय श्री येदियुरप्पा की व्यक्तिगत जीत भी है क्योंकि जुलाई महीने में जिस तरह उनकी सरकार पुनः बनी थी उसके पीछे दल-बदल का दाग लगा हुआ था परन्तु उप चुनावों में भाजपा ने दल बदलुओं को ही अपने टिकट पर खड़ा करके कांग्रेस के छक्के छुड़ा दिये हैं।
इसमें कहीं न कहीं और कुछ न कुछ तो भाजपा का अपना कमाल भी है जिसकी वजह से ‘टोपियां बदलने’ वाले विधायकों को मतदाताओं ने जीत दिला दी। अतः मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को राजनीति के ‘चतुर शिकारी’ की पदवी से नवाजने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। कांग्रेस को इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए कि उसके ही लोग भाजपा में जाने के बाद कैसे जीत गये।