खुली, उधार या बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का यह सिद्धान्त किसी हालत में स्वीकार नहीं किया जा सकता कि सरकार निजी क्षेत्र को इसमें कारोबार करके मुनाफे को अपनी ‘जेब’ में रखने का रवन्ना काट कर देती रहे और घाटे का ‘राष्ट्रीयकरण’ करती रहे। निजी क्षेत्र के ‘यस बैंक’ के कंगाली की हालत में पहुंचने की भरपाई भारतीय स्टेट बैंक जिस पूंजी के जरिये करेगा आखिरकार वह धन इस देश की जनता का ही होगा जो उसने इस बैंक में जमा कर रखा है। निजी बैंक के घाटे की जिम्मेदार सरकार किस तरह हो सकती है? यह कैसा विरोधाभास है कि एक तरफ तो सरकार अपने नियन्त्रण में चलने वाली लाभप्रद कम्पनियों की पूंजी बेच कर रोकड़ा की उगाही कर रही है और दूसरी तरफ वित्तीय घपलों को अंजाम देकर घाटा दिखाने वाले निजी संस्थानों के लिए अपने ही वित्तीय संस्थानों के माध्यम से बचाव अभियान चला रही है।
बैंक के प्रमोटर राणा कपूर को प्रवर्तन निदेशालय ने घोटालेबाजी के आराेप में गिरफ्तार कर लिया है और अदालत ने उसे 11 मार्च तक न्यायिक हिरासत में रखने का आदेश भी दे दिया है परन्तु मूल सवाल यह है कि इस बैंक में धन जमा कराने वाले आम नागरिकों को किस तरह यह बैंक अपना ही पैसा निकालने के लिए विभिन्न शर्तों से बांध सकता है? यह पूरी तरह ‘अमानत में खयानत है।’ बैंकों को ‘खैराती रोकड़ा दुकानें’ समझने वाले धन्ना सेठों को जनता की खून-पसीने की कमाई की बैंकों में जमा रकमों को उनके ऐश और तफरीह का जरिया हरगिज नहीं बनाया जा सकता। बैंक किसी भी देश के आर्थिक विकास की रीढ़ होते हैं और इनमें आम लोगों का यकीन इस तरह होता है कि मुसीबत के वक्त अपनी रकम को पाने में उन्हें किसी तरह की समस्या नहीं आयेगी। कल तक हर शहर कस्बे में अपनी 1100 शाखाओं के माध्यम से लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने वाले जुमले कहने वाला यस बैंक अचानक ही नो बैंक बन कर उन्हीं लोगों से कह रहा है कि एक महीने में बस 50 हजार की रकम ही निकाल सकते हो!
मगर कैसा सलूक किया जाये एक धन्ना सेठ की कम्पनी दीवान हाऊसिंग फाइनेंस लि.से जिसने इसी बैंक से तीन हजार करोड़ रुपए का कर्ज लिया और इसे चुकाने के बदले बैंक के प्रमोटर राणा कपूर की अपनी एक घरेलू कम्पनी डू इट अर्बन वेंचर्स इंडिया (प्रा) लिमिटेड को 600 करोड़ रु. का कर्ज अपनी एक सहायक गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनी से दिला दिया। सवाल यह है कि क्या ये तीन हजार करोड़ रुपए का ऋण राणा कपूर ने खैरात में दिया था कि इसके बदले में उसने अपनी पत्नी व बेटियों की कम्पनी के लिए 600 करोड़ रुपये का कर्ज ले लिया। कुछ साल पहले तक तो यही राणा कपूर बांस पर खड़े होकर हर वित्तीय कार्यक्रम में जोर-जोर से चिल्लाया करता था कि ‘भारत ने तरक्की की छलांग ये मारी कि वो मारी।’
दरअसल भारत में बैंकिंग व्यवसाय बड़े ही सिलसिलेवार ढंग से खैराती दुकानों में बदला गया है। निजीकरण का दौर चलने पर जिस तरह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की उपेक्षा की गई और उनके द्वारा दिये गये कर्जों 10 लाख करोड़ रुपए से अधिक के कर्ज बट्टे खाते में गये उसका लाभ निजी क्षेत्र के बैंकों ने प्रतियोगिता के नाम पर उठाने की कोशिश की और आम जनता को अच्छी सेवा व लाभ के लालच में फंसा कर चन्द पूंजीपतियों को मालामाल बनाने का काम किया और अपने ऐश करने का जरिया ढूंढा। पंजाब व महाराष्ट्र कोआपरेटिव बैंक (पीएमसी) घोटाला ठीक इसी तर्ज पर किया गया। इस बैंक में अपना धन जमा करने वाले लोग अब दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। तेजी से विकास करते अर्थ व्यवस्था वाले देश में बैंकों का ‘फेल’ होना बहुत ही खतरनाक और असाधारण घटना होती है। इसका मतलब होता है कि बैंक बाजार के प्रभाव में नहीं बल्कि बाजार बैंक के प्रभाव में काम करता है। ऐसा होने पर वित्तीय ढांचा चरमराने लगता है।
याद रखा जाना चाहिए कि भारत का सकल बैंकिंग व्यवसाय भारत के सकल घरेलू उत्पाद से 50 अरब रुपए से अधिक का है। इस बढ़ती वित्तीय व्यवस्था का लाभ चन्द धन्ना सेठ खैरात में मिले माल की तरह करना चाहते हैं। इस तरफ आंखें बन्द करके बैंकों की नियामक प्रणाली से लापरवाही के लिए जिम्मेदार कौन हो सकता है? जाहिर तौर पर इसका जवाब रिजर्व बैंक आफ इंडिया ही आयेगा। अतः रिजर्व बैंक ने यस बैंक को बचाने के लिए स्टेट बैंक की मार्फत जो स्कीम तैयार की है वह निजी क्षेत्र के बैंकों में फैली अराजकता का उत्तर नहीं हो सकती मगर एक तहकीकात होनी भी बहुत जरूरी है कि बैंकों से जो रोकड़ा उधार या कर्ज के तौर पर जो रकम सम्पत्ति प्रबन्धन कम्पनियों (एसेट मैनेजमेंट कम्पनियों) को दी जा रही है कहीं उसका उपयोग शेयर बाजार में तो नहीं हो रहा है।
यस बैंक ने बहुत बड़ी धनराशि एसेट मैनेजमेंट कम्पनियों को ही कर्ज के तौर पर दे रखी है। पीएमसी बैंक घोटाले में भी इस नजरिये से तहकीकात की जरूरत है। इसके साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को यदि अब भी मजबूत नहीं बनाया गया तो आने वाले समय में हमें कभी भी बहुत बहा झटका लग सकता है। इन बैंकों का भारत के सर्वांगीण विकास में सर्वाधिक योगदान रहा है। इनकी कार्यक्षमता और दक्षता को बढ़ाने के लिए कर्मचारियों की पर्याप्त सेना भी जरूरी है जबकि जिस तरह इस क्षेत्र के बैंकों का विलय हो रहा है उससे इनके कर्मचारियों की दक्षता घट रही है। ये बैंक सामाजिक बदलाव के एजेंट इस तरह रहे हैं कि इन्होंने आजादी के बाद से भारत की तीस प्रतिशत जनता को खेती की जगह उद्योगों पर निर्भर बनाया है।
ठीक ऐसा ही मामला भारतीय जीवन बीमा निगम का है। बीमा उर्दू का शब्द है जिसका मतलब ‘जमानत’ होता है। सरकार की गारंटी से चलने वाली इस कम्पनी की पालिसी लेते ही कोई भी नागरिक सरकार की सुरक्षा में चला जाता है। यह कम्पनी देश के आर्थिक व औद्योगिक विकास में जनता के जमा धन का निवेश करके उसे विकसित बनाने का काम करती रही है अर्थात अपने लाभ का राष्ट्रीयकरण करती रही है जबकि निजी क्षेत्र की कम्पनियां उल्टा काम करती हैं। मुनाफा गड़प और घाटा जनता के जिम्मे। इस हालत को हमें बदलना होगा।