आगामी फरवरी-मार्च महीने में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिए अब राजनीतिक दलों ने अपने-अपने प्रत्याशियों की सूची जारी करनी शुरू कर दी है, जिनमें उत्तर प्रदेश की सूची सबसे महत्वपूर्ण मानी जा रही है क्योंकि इस राज्य में होने वाले प्रान्तीय चुनाव दो साल बाद होने वाले राष्ट्रीय चुनावों के सेमीफाइनल माने जा रहे हैं। हालांकि पंजाब की सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस ने भी कुल 117 प्रत्याशियों में से 86 की पहली किश्त जारी की है जिसमें चार विधायकों का टिकट काटा गया है परन्तु उत्तर प्रदेश के कुल 403 प्रत्याशियों में से 107 की पहली सूची जारी करते हुए सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ने 20 विधायकों के टिकट काट दिये हैं। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में इस बार चुनावी युद्ध के लिए किस प्रकार भाजपा फूंक-फूंक कर कदम रख रही है और अपने विरोधियों के लिए गंभीर चुनौती पैदा करना चाहती है।
उत्तर प्रदेश की इस सूची में राज्य के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ का नाम भी है जो गोरखपुर (शहरी) क्षेत्र से चुनाव लड़ेंगे। योगी जी पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ेंगे हालांकि इससे पहले वह चार बार गोरखपुर सीट से ही लोकसभा सांसद रह चुके हैं। मगर योगी जी को प्रत्याशी घोषित करके भाजपा ने अपने प्रमुख विरोधी दलों समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी को सीधे निशाने पर ले लिया है क्योंकि पिछले तीन चुनावों अर्थात 2007 से इस राज्य का मुख्यमन्त्री किसी भी पार्टी का कोई भी ऐसा नेता नहीं बना है जिसका चुनाव सीधे आम जनता द्वारा किया गया हो। सभी ने मुख्यमन्त्री बने रहने के लिए पिछले दरवाजे अर्थात विधान परिषद का रास्ता चुना। इनमें स्वयं योगी जी भी शामिल हैं क्योंकि जब 2017 में वह मुख्यमन्त्री बने थे तो संसद के सदस्य थे। बाद में वह विधानपरिषद में गये। इसी प्रकार 2007 में जब सुश्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला था तो उन्होंने भी विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा था। इसके बाद 2012 में जब समाजवादी पार्टी को राज्य में पूर्ण बहुमत मिला था तो माननीय अखिलेश यादव भी लोकसभा सांसद थे और वह भी बाद में छह महीने के भीतर विधानपरिषद में पहुंच थे लेकिन भाजपा ने इस बार अपने मुख्यमन्त्री को विधानसभा चुनावों में उतार कर राज्य की पुरानी राजनीति को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है। बिना विधानसभा चुनाव लड़े मुख्यमन्त्री बनाने की परंपरा उत्तर प्रदेश में बहुत पुरानी नहीं है। लगभग तीन दशक पहले तक मुख्यमन्त्री का विधानसभा सदस्य होना इस पद की गरिमा व प्रतिष्ठा के अनुरूप समझा जाता था।
हालांकि 1970 में ऐसा भी हुआ था कि पहली बार इस राज्य के मुख्यमन्त्री पद पर कोई राज्यसभा सदस्य बैठा था और उनका नाम स्व. त्रिभुवन नारायण सिंह था। वह कांग्रेस के पहले विभाजन के बाद संगठन कांग्रेस में चले गये थे और उत्तर प्रदेश में पहले मध्यावधि चुनाव 1969 में होने के बाद कांग्रेस को ही पूर्ण बहुमत किनारे पर मिला था और स्व. चन्द्रभानु गुप्ता मुख्यमन्त्री बने थे परन्तु इसी वर्ष कांग्रेस का विभाजन होने पर श्री गुप्ता इन्दिरा जी के खिलाफ संगठन कांग्रेस में चले गये थे जिससे उनकी सरकार अल्पमत में आ गई थी। जिसके बाद स्व. चौधरी चरण सिंह ने साझा सरकार बनाई थी मगर आन्तरिक टूट के चलते वह मुश्किल से साढे़ सात महीने ही चल सकी। तब एक और साझा सरकार का प्रयोग किया गया और संगठन कांग्रेस के उत्तर प्रदेश से नेता राज्यसभा सदस्य श्री त्रिभुवन नारायण सिंह को बहुमत में जुटे विभिन्न दलों का विधानमंडलीय नेता चुना गया। तब उन्होंने राज्य विधानसभा का सदस्य बनने के लिए उपचुनाव लड़ा जिसमें वह इन्दिरा कांग्रेस के एक युवा प्रत्याशी से हार गये। इसके बाद विधानसभा में दल-बदल हुआ और इन्दिरा कांग्रेस का पुनः बहुमत हो गया। स्व. कमलापति त्रिपाठी राज्य के मुख्यमन्त्री बने जो कि विधानसभा सदस्य पहले से ही थे।
हालांकि वह भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके क्योंकि तब उत्तर प्रदेश में पीएसी (राज्य की सशस्त्र पुलिस) का विद्रोह हो गया था जिससे कुछ समय तक राज्य में राष्ट्रपति शासन रहा परन्तु छह महीने के भीतर तब केन्द्र की इन्दिरा गांधी कांग्रेस सरकार ने सांसद श्री हेमवती नन्दन बहुगुणा को मुख्यमन्त्री बनाया और इसके पांच महीने बाद ही राज्य में विधानसभा चुनाव घोषित हो गये जिनमें श्री बहुगुणा ने विजय प्राप्त की और वह मुख्यमन्त्री के पद पर बने रहे परन्तु पिछले तीस सालों के दौरान हमने कम से कम आधा दर्जन ऐसे मुख्यमन्त्री देखे जिन्होंने विधानसभा चुनाव लड़ने का जोखिम नहीं उठाया जबकि ये सभी नेता स्वयं को जनता में लोकप्रिय बताने से नहीं थकते थे। अतः भाजपा ने योगी जी को प्रत्याशी बना कर अपने सभी विरोधी दलों के सामने चुनौती फेंकी है कि यदि उनके नेताओं को अपने ऊपर विश्वास है तो वे चुनावी मैदान में उतर कर दिखायें। इनमें प्रमुख रूप से समाजवादी पार्टी के श्री अखिलेश यादव का नाम लिया जा सकता है जो अपने चुनाव प्रचार में भाजपा की सत्ता उखाड़ने की हुंकार भर रहे हैं। बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती पहले ही घोषणा कर चुकी हैं कि वह विधानसभा चुनाव नहीं लड़ेंगी। सवाल उठना लाजिमी है कि जिस नेता की अगुवाई में उसकी पार्टी चुनाव लड़ रही है यदि वही जनता के बीच जाने से घबराता है तो लोगों को उसके कहे पर किस तरह यकीन करना चाहिए?