माफिया डान से राजनीतिज्ञ बने हथकडि़यों में बंधे अतीक अहमद के साथ उसके भाई अशरफ की प्रयागराज में पुलिस की मौजूदगी में तीन युवकों ने जिस हेकड़ी के साथ सरेआम हत्या की उससे पूरा देश न केवल स्तब्ध था बल्कि यह सोचने पर भी मजबूर था कि विकास का सौपान चढ़ता यह देश किस मनस्थिति में पहुंच गया है कि माफिया को खत्म करने के लिए एक-दूसरे “हत्या माफिया” का जन्म हो रहा है। अतीक की हत्या करने वाले तीनों युवक घोषणा कर रहे हैं कि वे नाम कमाने के लिए यह कार्य करना चाहते थे। सवाल उठना लाजिमी है कि क्या भारत ऐसी स्थिति में पहुंच गया है कि इस देश के युवक अपराध को अपने जीवन का लक्ष्य बनाना चाहते हैं ? युवा पीढ़ी यदि अपराधी जीवन को खुद के लिए चुनने का लक्ष्य निर्धारित कर रही है तो इससे बहुत बड़े सवाल उठते हैं और वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक वातावरण का बयान भी करते हैं। क्या युवकों के लिए नाम कमाने के लिए और वैध रास्ते इतने तंग और मुश्किल हो चुके हैं कि उनकी मन: स्थिति अपराध को जीवन जीने का साधन बनाने के लिए प्रेरित कर रही है? यह सवाल इतना बड़ा है कि इस बारे में देश के राजनीतिक समाज को ही सबसे पहले उत्तर ढूंढना होगा और समूचे समाज के मनोविज्ञान को बदलना होगा। इसकी वजह यह है कि भारत के हर नागरिक का जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक ही राजनीतिक निर्णयों से प्रभावित रहता है। स्कूली शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य और रोजगार तक के हर क्षेत्र में राजनीति अपनी प्रभावी भूमिका निभाती है और उसे एक नागरिक के रूप में विकसित करती है। बचपन से वयस्क तक होने में किसी भी व्यक्ति के जीवन में ऐसे क्षण बार- बार आते हैं जब वह यह सोचने पर मजबूर होता है कि वह जिस पारिवारिक व सामाजिक परिवेश में बड़ा हुआ है उसमें उसके साथ कहां- कहां अन्याय हुआ है। उसकी आर्थिक स्थिति ने उसे कहां-कहां अपनी प्रतिभा व मेधा को बलि चढ़ाने के लिए मजबूर किया है। जाति या धर्म के आधार पर उसके साथ कहां- कहां भेदभाव हुआ है। इन सब बातों से राजनीति का सीधा- सीधा सम्बन्ध होता है, क्योंकि राजनीतिज्ञ ही एेसी नीतियां तैयार करते हैं जिनसे सामाजिक बराबरी का माहौल बनता है और प्रतिभा का समुचित सम्मान होता है, परन्तु हमने तो आर्थिक उदारीकरण के नाम पर शिक्षा को ही कारोबार में तब्दील कर दिया है और समाज के कमजोर तबकों के आर्थिक रूप से कमजोर युवकों के हाथ से उच्च शिक्षा पाने तक का अधिकार भी छीन लिया है। इसके उलट हमने इस समाज के लोगों को धार्मिक, अंधविश्वासी बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। हम आजादी के बाद लक्ष्य लेकर चले थे कि किसी लुहार का मेधावान बेटा वैज्ञानिक बनेगा और किसी किसान का बेटा इंजीनियर या डाक्टर बनेगा और चपरासी का बेटा बड़ा अफसर बनेगा, मगर पूरी शिक्षा व्यवस्था को ही हमने आर्थिक उदारीकरण के जोश में तिजारत में तब्दील कर डाला और चपरासी के बेटे को चपरासी ही बने रहने पर या लुहार के बेटे को लुहार ही बने रहने पर मजबूर कर दिया। राजनीति ने इन वंचित व बेरोजगार युवकों को राजनीति में ही अपराधियों के महिमामंडन व अधिकार सम्पन्न बनने की गाथाओं को ही प्रेरणा समझ लिया। रही-सही कसर धार्मिक उन्मांदी वातावरण ने पूरी कर डाली । युवा पीढ़ी किसी भी देश की वह धड़कन मानी जाती है जिसमें भविष्य का तापमान नजर आता है। अगर अतीक की हत्या करने वाले तीन युवक यह कह रहे हैं कि उन्होंने अपना नाम कमाने के लिए हत्याएं की हैं तो मतलब साफ है कि हम इस लोकतान्त्रिक भारत में तालिबानी मानसिकता की तरफ बढ़ रहे हैं क्योंकि कानून को ताक पर रखकर सड़कों पर अपने तरीके से न्याय करने की फितरत तालिबानों की ही होती है। यह बहुत ही खतरनाक संकेत हैं जिस तरफ भारत के पूरे राजनीतिक समाज को तुरंत ध्यान देना होगा और किसी भी राजनीतिक दल को इन तीनों युवकों के किसी भी आड़ में महिमामंडन से बचना होगा, वरना हम ऐसे दौर में प्रवेश कर जायेंगे जिसमें हर युवक अपराधी बनने की तरफ आकर्षित होगा। हमारा राजनीतिक समाज पहले ही माफियाओं को सियासत में इज्जत बख्श कर बहुत बड़ी गलती कर चुका है। अब अपराधियों का महिमामंडन करके वह भारत के भविष्य के साथ ही बहुत बड़ा खिलवाड़ करेगा। किसी भी राजनीतिक दल का पहला उद्देश्य समाज व राष्ट्र का विकास करना होता है और नागरिकों को वैज्ञानिक सोच का बनाना होता है। भारत का संविधान इसी बात की ताईद करता है और कहता है कि मजहब किसी भी नागरिक का व्यक्तिगत मामला है। जिस प्रकार अतीक अहमद की पहचान हिन्दू-मुसलमान से पहले एक अपराधी की थी उसी प्रकार इन तीनों युवकों की पहचान भी सबसे ऊपर अपराधियों की ही है। अपराध का अपना अलग ही मजहब या धर्म होता है। हम जिस भारत में रहते हैं उसमें कानून का शासन चलता है, मगर इस देश को आजादी दिलाने वाले महात्मा गांधी तो मानते थे कि ‘न्याय का शासन’ होना चाहिए। यह न्याय केवल इंसानियत को ही सर्वोपरि रखकर हो सकता है अगर दुनिया में आंख निकालने के बदले आंख निकालना ही कानून हो जायेगा तो एक वक्त में पूरी दुनिया ही अंधी हो जायेगी। महात्मा गांधी की दृष्टि इसीलिए न्याय के शासन की थी। अतः अतीक का जितना बड़ा अपराध था इन तीन युवकों का अपराध भी उससे कम करके नहीं आंका जा सकता। उन्होंने तो पूरी राज्यसत्ता को ही चुनौती दे डाली है और इस प्रेरणा के साथ दे डाली है कि वे अतीक से भी बड़ा ‘माफिया डान’ बनना चाहते हैं।