जब भी शिल्प या निर्माण की बात होती है तो सर्वप्रथम भगवान श्रीविश्वकर्माजी का ध्यान और मनन सर्वोपरि हो जाता है। इसलिए सृजन के सुचारू और निर्दोष आकार में परिणाम प्राप्त करने के लिए भगवान श्रीविश्वकर्माजी को आमंत्रित किया जाता है। स्पष्ट है कि श्रीविश्वकर्मा पूजा जनकल्याणकारी है। भगवान श्रीविश्वकर्माजी की पूजा से निर्माण और सृजन में कर्तव्यनिष्ठा का स्वतः बोध होता है। अतएव राष्ट्रीय उन्नति के प्रयोजन हेतु भी प्रत्येक भारतीय को, जो शिल्प, कला, तकनीकी या विज्ञान के कार्यों में सलंग्न है, उनको अवश्य ही भगवान श्रीविश्वकर्माजी की आराधना का लाभ लेना चाहिए। पूर्वकाल तक विद्वानों का मत रहा है कि सभी युगों में बहुत से विश्वकर्मा हुए हैं। जैसे प्रभास पुत्र श्रीविश्वकर्मा, भुवनपुत्र श्रीविश्वकर्मा और त्वष्ठापुत्र श्रीविश्वकर्मा आदि अनेक विश्वकर्माओं का उल्लेख है। जब कि ऐसा नहीं है। अब लगभग विद्वान मानते हैं कि श्रीविश्वकर्मा एक आदिशक्ति पुंज हैं। जो कि सभी युगों में सृजन के लिए देवताओं द्वारा आंमत्रित किये गये। भगवान श्रीविश्वकर्माजी के जन्म के संबंध में पुराणों में यह श्लोक मिलता है –
बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी।
प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च।
विश्वकर्मा सुतस्यशिल्पकर्ता प्रजापति।
(बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या को जानने वाली थी, वह अष्टम् वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे सम्पूर्ण शिल्पविद्या के ज्ञाता प्रजापति श्रीविश्वकर्मा का जन्म हुआ)
सभी चारों युगों में भगवान श्रीविश्वकर्माजी ने कई नगर और भवनों का निर्माण किया। उपनिषद और पुराणों में इन्द्रपुरी, वरूणपुरी, यमपुरी और सुदामापुरी जैसे जगतप्रसिद्ध नगरों के निर्माण का श्रैय भगवान श्रीविश्वकर्माजी को ही है। कालचक्र के आधार पर देखें तो सबसे पहले सत्युग में उन्होंने स्वर्गलोक का निर्माण किया। बाद में त्रेतायुग में कुबेरजी की सोने की लंका का निर्माण भी भगवान श्रीविश्वकर्माजी ने ही किया था। द्वापर युग में श्रीकृष्ण के लिए द्वारका का निर्माण किया। कलयुग के आरम्भ में भगवान श्री विश्वकर्माजी ने हस्तिापुर और इन्द्रप्रस्थ का निर्माण किया था। इन्द्रप्रस्थ कला और आश्चर्य का एक बहुत नायाब उदाहरण था। इसके बारे में आप महाभारत में विस्तार से पढ़ सकते हैं। अस्त्र-शस्त्रों में भगवान श्रीशिव का त्रिशूल, श्रीधर्मराज का कालदण्ड, भगवान श्रीनारायण के अत्यन्त तीव्रगामी सुदर्शन-चक, महर्षि दधिचि की हड्डियों से देवताओं के राजा इन्द्र के वज्र का सृजन भी श्रीविश्वकर्माजी के उन्नत तकनीकी ज्ञान से ही संभव हो पाया। वाद्ययंत्रों में मां शारदा की वीणा और श्रीशिव के डमरू उल्लेखनीय है। इसके अलावा श्रीविश्वकर्माजी ने सुप्रसिद्ध पुष्पक विमान, श्रीशिव के कमण्डल और महारथी कर्ण के कुण्डल आदि का निर्माण और चिकित्सा के क्षेत्र के अनेक यंत्रों का सृजन किया, ऐसा व्याख्यान पुराणों में वर्णित पाया जाता है। आप भगवान श्रीविश्वकर्माजी का शिल्प आज भी श्रीजगन्नाथपुरी की मूर्तियों में देख सकते हैं। मान्यता है कि श्रीविश्वकर्माजी ने ही श्रीजगन्नाथपुरी के मंदिर में स्थित विशाल मूर्तिर्यों का काष्ठ से निर्माण किया था। मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण, सुभद्रा और बलरामजी की दिव्य प्रतिमाएं हैं।
शास्त्रों में यह स्पष्ट लिखा है कि यज्ञ और गृहप्रवेश जैसे मांगलिक कार्यों में श्रीविश्वकर्माजी की पूजा करने से कार्य संपादन में श्रीवृद्धि होती है। निम्न श्लोक देखें –
विवाहदिषु यज्ञषु गृहारामविधायके।
सर्वकर्मसु संपूज्यो विश्वकर्मा इति श्रतुम।
घर के निर्माण के आरम्भ में भी श्री विश्वकर्मा की पूजा से कार्य निर्बाध रूप से संपन्न हो जाता है। श्री विश्वकर्मा सभी संकटों और विपत्तियों को हरने वाले है। इसलिए जिस किसी कार्य में जोखिम होता है उन सभी को आरम्भ करने से पूर्व श्री विश्वकर्मा का मनाए जाने की पुरातन परम्परा चली आ रही है। इसलिए कल-कारखानों में श्री विश्वकर्मा का चित्र अवश्य होता है।
भगवान श्रीविश्वकर्माजी की ऋद्धि, सिद्धि और संज्ञा नाम की तीन पुत्रियों का वर्णन मिलता है। इनमें से ऋद्धि और सिद्धि का विवाह श्रीगणेशजी महाराज से हुआ। मान्यता है कि ऋद्धि और सिद्धि के बिना श्रीगणेशजी की पूजा अधूरी मानी जाती है। तीसरी पुत्री श्रीसंज्ञा का विवाह महर्षि कश्यप और देवी अदिति के पुत्र भगवान सूर्य से हुआ था। उपरोक्त तथ्यों से यह बात स्वतः ही सिद्ध हो जाती है कि भगवान श्रीविश्वकर्माजी आदिदेव हैं। यदि ऋग्वेद की बात की जाए तो विश्वकर्मा सूक्त के नाम से 11 ऋचाएं मिलती हैं। ऋग्वेद में विश्वकर्मा शब्द इन्द्र और सूर्य का विशेषण बनकर भी प्रयुक्त हुआ है। यजुर्वेद के अध्याय 17 में भी भगवान श्रीविश्वकर्माजी का वर्णन आता है।
हालांकि भगवान श्रीविश्वकर्माजी के जन्म के संबंध में अनेक मत प्रचलित हैं। कुछ का मैं यहां उल्लेख कर रहा हूं। आमतौर पर कन्या संक्रान्ति अर्थात् 17 सितम्बर को आधुनिक भारत के सभी शहरों में श्रीविश्वकर्मा दिवस के तौर पर अवकाश रखा जाता है। श्रीविश्वकर्माजी की पूजा के भव्य कार्यक्रम रखते हुए झांकियां निकाली जाती हैं। 17 सितम्बर को सभी कल-कारखानों, शिल्प संकायों और छोटे-बड़े सभी उद्योगों में भगवान श्रीविश्वकर्माजी के जन्म को श्रम दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह उत्सव वास्तव में शिल्प, कला और श्रम को सम्मान और समाज में उसका उचित स्थान दिलाने में एक जागरूकता का कार्य करता है। स्थूल रूप से 17 सितम्बर को पश्चिम बंगाल, असम, कर्नाटक, उड़िसा, बिहार और झारखण्ड में विशेष उत्सव का माहौल रहता है। वैसे विश्वकर्मा जयन्ती कन्या संक्रान्ति के दिन मनाई जाती है। अंग्रेजी वर्ष 2024 में कन्या संक्रान्ति 16 सितम्बर का रात्रि 7 बजकर 45 मिनट पर है। चूंकि सूर्योदय के समय 16 सितम्बर को सूर्य सिंह राशि में ही है इसलिए इसके अगले दिन यानी 17 सितम्बर 2024 को श्री विश्वकर्मा जयन्ती को मनाया जाना शास्त्रसम्मत है।
शिलांग और पूर्वी बंगाल में श्रीविश्वकर्माजी का जन्मोत्सव भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा को मनाया जाता है। इस तिथि का उल्लेख महाभारत में भी प्राप्त होता है। इन क्षेत्रों में इसी दिन श्रीविश्वकर्माजी की खास पूजा-अर्चना की जाती है। अन्नकूट अर्थात् जिस दिन गोवर्धन पूजा होती है, उस दिन भी भगवान श्रीविश्वकर्माजी की पूजा का विधान है। वैसे समस्त उत्तर भारत में माघ शुक्ला त्रयोदशी को भगवान श्रीविश्वकर्माजी का जन्मोत्सव मनाने की परंपरा आदि काल से है। इसके प्रमाण में यह श्लोक देखें –
माघे शुकले त्रयोदश्यां दिवापुष्पे पुनर्वसौ।
अष्टा विंशति में जातो विशवकर्मा भवनि च।।