समय के साथ काफी कुछ बदल गया है। एक ऐसा समय भी था जब कुओं का निर्माण सबसे पुण्य का काम माना जाता था। किसी प्यासे को पानी पिलाना बहुत ही पुण्य का काम माना जाता था। लेकिन कुएं का निर्माण किसी राजपरिवार या नगर सेठ द्वारा ही किया जाता था। क्योंकि यह एक खर्चीला उपक्रम था। इसलिए जो लोग कुएं को खुदवाना और उसके रखरखाव जैसे भारी खर्च को वहन करने में सक्षम नहीं होते थे वे पानी के कुछ घड़े रखकर प्याउ नाम से पानी के दान का एक सूक्ष्म स्रोत क्रियेट करते थे। यह भी सब लोग नहीं कर पाते थे। इसलिए आदि काल से ही पानी के महत्व को स्वीकार किया गया था। यहां तक कि मोहन-जो-दड़ों की खुदाई में बहुत से कुएं प्राप्त होते हैं।
विशेष तौर पर सूखे इलाको में जहां नदियों का पानी प्रायः उपलब्ध नहीं होता था, वहां कुएं का विशेष महत्व था। खैर! समय के साथ सब कुछ बदल गया। जिस पानी को पिलाना पुण्य का काम माना जाता था वही पानी अब एक अच्छे-खासे बिजनेस में तब्दील हो गया है। लेकिन पुराने कुएं अब भी अपनी यादों को बनाए हुए हैं। दिल्ली जैसे महानगर से लेकर छोटे गांवों तक में आज भी कुओं के नाम एक क्षेत्र विशेष के पते का इंगित करते हैं। जैसे दिल्ली में धौला कुआं। वर्तमान में ट्यूब बेल की तकनीक के विकसित होने के बाद भूमिगत जल को प्राप्त करने के लिए कुओं का निर्माण बंद हो गया है। लेकिन पुराने कुएं ज्यों कि त्यों मौजूद है। हालांकि उनमें से बहुत अधिक संख्या में अब उपयोग में नहीं आ रहे हैं लेकिन वे अपने स्थान पर टिके हुए हैं और अतीत की यादों को संजोए हैं। लेकिन जब हम वास्तु की बात करते हैं तो कुओं का अपना महत्व है।
मैंने सौ से भी अधिक कुओं का अवलोकन किया तो पाया कि निश्चित तौर पर कुओं के आसपास की भूमि में बहुत अधिक नकारात्मक ऊर्जा होती है। जिसके कारण कुएं से सट कर बने घरों में 90 प्रतिशत में कोई उल्लेखनीय विकास नहीं हो पाता है। जैसे-तैसे काम चलता रहता है। इसलिए मैं इस बात से पूरी तरह से आश्वस्त हूं कि जहां कुआं होता है वहां भूमि-दोष होता है। इसमें कोई संशय नहीं है।
आमतौर पर जो आवासीय परिसर कुएं के बिल्कुल सट कर बने हों उनमें निश्चित दोष देखने को मिलता है। इस प्रकार के घरों में मांगलिक कार्यों में बाधा उत्पन्न होती है। घर में रोग और शोक का वातावरण बना रहता है। लेकिन जिन आवासीय परिसर और कुएं के मध्य एक प्लॉट का या घर का फासला हो उनमें दोष कम होगा लेकिन पूरे तरह से दोष मुक्त तो वे भी नहीं होंगे।
जिन कुओं और घर के मध्य कम से कम 30 फीट का राजमार्ग हो, तो कुएं के दुष्प्रभाव नहीं होंगे। मैंने यह भी देखा है कि जिन घरों और कुओं के मध्य 50 फीट या अधिक दूरी हो, उन भूखंडों में भी कोई दोष नहीं होता है। हालांकि यह धारणा तब अधिक सटीक होती है जब कि आवासीय परिसर के उत्तर या पूर्व में कुआं हो। दक्षिण-पश्चिम में सूखा कुआं होने पर स्थिति ज्यादा गंभीर और चिंताजनक हो सकती है।
जो कुएं पुराने हों, सूखे हो या जिनका उपयोग नहीं हो रहा हो, उनका दोष अधिक होता है।
बहुत से मेरे मित्र पूछते हैं कि वास्तु के संदर्भ में कुओं और आधुनिक ट्यूबवेल में क्या अंतर होता है। जब कि दोनों को प्रयोजन तो एक ही है। यह बात बिल्कुल ठीक है कि कुओं और ट्यूबवेल, दोनों से पानी की पूर्ति होती है, तो क्या ट्यूबवेल पूरी तरह से दोष मुक्त है। यहां मैं अपने प्रिय पाठकों को क्लीयर कर देना चाहता हूं कि एक कुएं और ट्यूबवेल के आयतन में पांच सौ गुना से भी अधिक का अंतर होता है। आमतौर पर एक ट्यूबवेल जितना दोष उत्पन्न करता है, उसकी तुलना में एक कुआं लगभग पांच सौ गुना अधिक नेगेटिव ऊर्जा का उत्सर्जन करता है। इसलिए मेरा यह समझना है कि ट्यूबवेल यदि उत्तर दिशा में बना हो तो वह पूरी तरह से दोष मुक्त होता है।
Astrologer Satyanarayan Jangid
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