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क्या अभी भी हम पूरी तरह आजाद है?

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15 अगस्त 1947 को भारत की धरती से अंग्रेजों का राज्य समाप्त हो गया। यानि गोरे अपने इंग्लैण्ड वापस चले गये और देश पर अपने ही देशवासियों का शासन हो गया था। उस समय चारों ओर आजादी का जश्न मनाया गया। जगह जगह रोशनियां की गयीं। स्थान स्थान पर मिठाइयां बांटी गयीं। छोटे बड़े जलसे किये गये। कहने का अर्थ है चारो ओर खुशियां ही खुशियां। यह सब किस लिए था ? इसलिए ही न कि उन्हें लग रहा था कि अब हम गुलामी की बेडि़यों से आजाद हो गये। वे समझ रहेे थे कि सदियों बाद उन्हें यह आजादी मिली अब शोषक सरकार (विदेशी सरकार) चली गयी तो चारों ओर आजादी ही आजादी है,अब लोग सुखी होंगे। धनधान्य से सम्पन्न होंगे। बेकारी मिटेगी। गरीबी हटेगी एवं विषमता दूर होगी। भेदभाव की खाईं पटेगी, समानता आयेगी, सामाजिक समानता मिलेगी इसी परिकल्पना से देश का आम आदमी खुशी से झूम उठा था।

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किन्तु ऐसा लगता है कि यह सब सपना था। अब 15 अगस्त 1947 की वो पहली खुशी लोगों के चेहरों पर दिखायी नही पड़ती, प्रतिवर्ष जब भी 15 अगस्त आता है तो देश के लोगों में वही खुशी की लहर दौड़ती नही दिखती, ऐसा लगता है कि इस दिन का महत्व अब राष्ट्रीय अवकाष से ज्यादा नहीं रह गया,  क्यों लोग इस आजादी के उत्सव से दूर होते जा रहे हैं? लोगों में वह लगन और उत्साह क्यों नहीं उमड़ता हुआ दिखाई पड़ता है? तब समझ आता है कि उनकी ‘आसमान से गिरा खजूर में अटका’वाली स्थिति है! भारत की आजादी का इतिहास देखें तो जब आजादी की लहर उठी तो उसमें देश के हर वर्ग का व्यक्ति जूझने लगा। बहुजन समुदाय गरीब था, शोषित था, और पीडि़त था। वह मानसिक दासता से मुक्ति चाहता था। वह मुक्ति चाहता था आर्थिक असमानता से। वह मुक्ति चाहता था सामाजिक विषमता से। वह मुक्ति चाहता था धार्मिक शोषण की जंजीरों से। इसलिए वह मरे मन से नहीं, अपितु उत्साहित मन से इस स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ा था। मासूम बच्चों से लेकर बूढ़ों तक ने ललकार लगायी। सधवा से लेकर विधवा तक ने अपने खून की आहुति दी।

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इस महायज्ञ में बहनों ने भी होम किया। पत्नियों ने पतियों का बलिदान दिया। माताओं ने पुत्रों को हंसते हंसते बलिदान पथ पर भेज दिया। सबका त्याग, तपस्या, लगन और सबसे बड़ी बात, आजादी से सांस लेने की ललक ने, वह तूफान खड़ा किया, जिनके समक्ष अंग्रेजी शासन का झंडा हिल गया, और देश आजाद हो गया। कांग्रेसी नेतृत्व के हाथों में राजनीतिक सत्ता आने के रूप में देश को जो आजादी मिली थी, उसके बाद 70 साल का समय बीत चुका है। सच्चाई को जानने और फैसला लेने के लिए साढ़े छह दशक से अधिक का समय बहुत होता है। जरा सोचिए ये कैसी आजादी की बात हम कर रहे हैं जिसमें अरबों-खरबों के घोटाले, बुर्जुआ जातिवादी और कट्टरपंथी धार्मिक राजनीतिक के हथकंडे, सांप्रदायिक दंगे, दलित उत्पीड़न, महिलाओं के खिलाफ हिंसा का प्रकोप के बीच पूरा हिन्दुस्तान अपने होने के अस्तित्व से जूझ रहा है। भारत का बहुजन आजादी को न तो उस समय जान पाया, जब वह मिली थी, न वह आज ही उसको समझ सका है। वह तो आज भी शोषण का शिकार है। बलात्कार, अत्याचार, मार ही उसके हिस्से में आयी है। इस स्थिति को देख कर कोई भी यह कह सकता है कि अभी आर्थिक, सामाजिक एवं धार्मिक दासता का ही बोलबाला है। बहुजन अब भी गरीबी व भुखमरी का शिकार है। भारत का अल्प जन ही आजादी का सुख भोग रहा है। गरीब और गरीब हो रहा है और अमीर और भी अमीर।

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सत्ताधारी व्यक्तियों के पास बचाव में कहने के लिए कई दलीले है जो वे कुर्सी बचाने के लिए समय-समय पर देते रहते है। दरअसल आजादी का झंडा बुलंद करने वाले राजनेताओं की बातों पर भरोसा करें तो विदेशी पूंजी निवेश के बिना न तो देश का विकास संभव है और न ही देश में रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे। ये महानुभाव षायद भूल चूके है कि इस देश की समृद्धि, वैभव के सम्बंध में इतना ही कहना काफी होगा कि यह देश सोने की चिडि़या कहलाता था। सच्चाई यह है कि देश की पूंजी, अगर भ्रष्टाचार में बर्बाद नहीं हो तो देश का एक भी व्यक्ति बेरोजगार नहीं रहेगा और यदि बेईमान लोगों के पास पूंजी जमा न होकर जब देश के ढांचागत विकास एवं व्यवसाय में लगे तो देश में इतनी समृद्धि आ जाएगी कि हम दूसरे देशों को पैसा ब्याज पर देने की स्थिति में होंगे। जरा सोचिए, भारत इतना गरीब देश है कि सवा लाख करोड़ के नए-नए घोटाले आम हो गए हैं। क्या गरीब देश भारत से, सारी दुनिया के लुटेरे व्यापार के नाम पर 20 लाख करोड़ रुपये प्रतिवर्ष ले जा सकते हैं?
जरा इन आंकड़ों को देखें-

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15 अगस्त 1947 को भारत न सिर्फ विदेशी कर्जों से मुक्त था, बल्कि उल्टे ब्रिटेन पर भारत का 16.62 करोड़ रुपए का कर्ज था। आज देश पर 50 अरब रुपए से भी ज्यादा का विदेशी कर्ज है। आजादी के समय जहां एक रुपए के बराबर एक डॉलर होता था, आज एक डॉलर की कीमत 64 रुपए है। महंगाई पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था चरमरा गई है। इन साढ़े छह दशकों में हिन्दुस्तान में बहुत कुछ बदला, लेकिन अगर कुछ नहीं बदली तो वो है ‘गुलामी की मानसिकता’। जल्द ही ये स्थित नहीं सुधरी तो हम मानसिक गुलामी से तो उबर नहीं पाए और आर्थिक गुलामी के चंगुल में फंस जाएंगे। आजादी क्या उन्हें मिली, जो गुलाम था तन से, गुलाम था मन से और गुलाम था धन से? या आजादी उन्हें मिली जो सशक्त था, बलशाली था, धन से ऐश्वर्यशाली था। आजाद हिन्दुस्तान में आम आदमी को ना तो भूख से आजादी है और ना ही बीमारी से। शिक्षा के अभाव में वह अंधविश्वास का गुलाम बना हुआ है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी कन्या भू्रण हत्याएं समाप्त नहीं हो सकी हैं और ना ही बाल विवाह और दहेज को लेकर महिलाओं का उत्पीड़न। इससे पूरा सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो रहा है। जहां तक दलितों और आदिवासियों के शोषण और तिरस्कार का सवाल है, इसके लिए दिखाने को कानून बहुत से हैं पर यहां भी इन तबकों की आजादी पूरी नहीं समझी जा सकती।

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विडंबना यह भी है कि सरकार आंकड़ों की भूल-भुलैया में आलोचकों को उलझाकर गद्दी पर बने रहना ही अपना कर्तव्य समझती है। बंधुआ मजदूर हो अथवा कर्ज में डूबे खुदकुशी करने वाले किसान या फिर गरीबी की सीमा रेखा के नीचे 20 रुपये रोज पर जिंदगी बसर करने वाले दिहाड़ी मजदूर, खुद को आजाद कैसे समझ सकते हैं भला? 1947 का दागदार उजाला आज संगीन अंधेरी रात की शक्ल ले चुका है। साम्राज्यवाद और देशी पूंजीवाद के राहु-केतु ने हिन्दुस्तान के विकास के सूरज को पूरी तरह से ग्रस लिया है। 70 साल पहले जो सवाल मशहूर शायर अली सरदार जाफरी ने पूछा था, वो आज भी पूरे देश की जनमानस का सवाल है-
कौन आजाद हुआ
किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी
मेरे सीने में अभी दर्द है महकूमी का
मादरे-हिन्द के चेहरे पे उदासी वही।
कौन आजाद हुआ…
खंजर आजाद है सीनों में उतरने के लिए
मौत आजाद है लाशों पे गुजरने के लिए
कौन आजाद हुआ…

अंग्रेजी शासन के आकाश से गिरने वाली स्वतंत्रता कहां आकर रुक गयी? यह एक अहम प्रश्न सबके मन में उठता है। बरबस मन कह उठता है कि आजादी मिली तो सही किन्तु उन चंद लोगों को जो पहले से सुखी थे, या यूं कहूं कि आजादी, सम्पन्न लोगों में आकर अटक गयी है। आजाद हिन्दुस्तान के 70वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आजादी की तलाश एक बड़ा मुद्दा है। हम सबको मिलकर गुम हुए ‘आजाद भारत की सच्ची तस्वीर बनाने का संकल्प ले कर 15 अगस्त मनाना है। जय हिन्द!!!!!

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