लुधियाना- मानसा : आज के दौर में सरकारी स्कूलों में बच्चे काफी जद्दोजहद के बाद भी पढऩे को तैयार नहीं होते। हर साल हजारों बच्चे ड्रॉप आउट हो जाते हैं। प्राइवेट स्कूलों में भी शुरूआत में मां-बाप को बच्चे को ले जाने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है। लेकिन मानसा के बोहा कस्बे में मासूम सी दिखने वाली एक छोटी सी बच्ची एक टांग पर हर रोज स्कूल आती-जाती है। विद्या के मंदिर में घुसने से पहले दहलीज पर झुकते हुए सबसे पहले वह माथा टेकती है और फिर धरती मां को चूमकर विद्यालय में प्रवेश करती है। छह साल की मीरा ने पढ़ाई के लिए अपने जज्बे से सभी को कायल बना लिया है। उसके पास उडऩे के लिए पंख नहीं, लेकिन हौसला काफी है। अपने हौसलों और दृढ़ इच्छा शक्ति के चलते वह र्निविध्र अपने र्निधारित लक्ष्य की ओर बढ़ रही है।
बोहा के सरकारी प्राइमरी स्कूल के टीचर कुछ महीने पहले ड्रॉप आउट बच्चों के लिए सर्वे कर रहे थे। राइट टु एजुकेशन एक्ट के तहत स्कूल से वंचित रह गए बच्चों को दाखिल कराया जा सके। तभी कुछ दूर स्थित झुग्गियों में उन्हें मीरा और उसके भाई-बहन मिले। मीरा की एक टांग थी। यह देख टीचरों को खास उम्मीद नहीं थी कि बच्ची पढ़ पाएगी। लेकिन उन्होंने तीनों बच्चों का दाखिला कर लिया। बच्चों की ड्रेस और किताबों का इंतजाम भी स्कूल की तरफ से कर दिया गया। टीचरों के लिए यह एक रूटीन था, उन्होंने सोचा कि बाकी दो बच्चे स्कूल आ जाएं वही बहुत है। लेकिन अगले ही दिन इलाके के लोग सुबह एक छोटी सी बच्ची को एक टांग पर सधे हुए ढंग और पूरी रफ्तार के साथ स्कूल बैग लिए ड्रेस में देखा तो वे हैरान रह गए। इसके बाद चौंकने की बारी टीचरों की थी।
स्कूल के प्रिंसिपल गुरमेल सिंह खुद दिव्यांग हैं, सो यह दर्द बखूबी समझते हैं। पढ़ाई के लिए मीरा का जज्बा देखने के बाद उन्होंने सारे स्टाफ को हिदायत दी कि यह हर हाल में यकीनी बनाया जाए कि मीरा को कोई परेशानी न आए। उसके बाद जैसे-जैसे दिन बीतते गए हर कोई मीरा के जज्बे और हौसले का मुरीद बनता गया। पहली क्लास में ही मीरा के साथ उसका भाई ओम प्रकाश भी पढ़ता है। अब मीरा का बैग लाने ले-जाने की जिम्मेदारी उसने संभाल ली है। इस उम्र में ही उसे बड़े भाई की भूमिका का एहसास हो गया है। मीरा की टीचर परमजीत कौर ने भी उसकी मदद शुरू कर दी है। वह कोशिश करती हैं कि अगर संभव हो सके तो वह अपनी स्कूटी पर मीरा को स्कूल ले जाएं और वापसी में भी छोड़ दें। लेकिन रोजाना यह संभव नहीं हो सकता।
परमजीत कौर बताती हैं कि मीरा को पढऩे का बहुत शौक है। स्कूल आना मानो उसकी जिंदगी का सबसे अहम काम है। उसे स्कूल आते हुए सिर्फ ढाई महीने हुए हैं, पर पूरा मन लगा कर पढ़ती है। स्कूल और पढ़ाई के लिए इतना जोश उन्होंने किसी और बच्चे में नहीं देखा। मीरा का घर स्कूल से करीब सवा किलोमीटर दूर है और वह एक टांग से चलने की इतनी अभ्यस्त हो चुकी है कि लगता ही नहीं उसे कोई परेशानी है। बड़े होकर क्या बनोगी जैसे सवालों के न तो उसके पास जवाब हैं और न ही उसे ये समझ आते हैं। लेकिन मीरा की सूनी आंखों में पढ़ाई को लेकर एक उम्मीद जरूर नजर आती है।
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– रीना अरोड़ा