उच्चतम न्यायालय ने तमिलनाडु में ‘जल्लीकट्टू’ को अनुमति देने संबंधी कानून को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई के दौरान बुधवार को कहा कि ‘सबसे महत्वपूर्ण सवाल’ संभवत: यह हो सकता है कि क्या पशुओं पर क्रूरता के रूप में देखे जा रहे ‘जल्लीकट्टू’ उत्सव के किसी भी प्रारूप को अनुमति दी जा सकती है।
विभिन्न याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वकीलों ने न्यायमूर्ति के. एम. जोसेफ की अध्यक्षता वाली पांच-सदस्यीय संविधान पीठ के समक्ष दलील दी कि किसी भी जानवर के प्रति क्रूरता की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
संविधान पीठ ने कहा, हमारे हिसाब से अंतिम सवाल शायद यह हो सकता है कि क्या ‘जल्लीकट्टू’ किसी भी रूप में मनाया जा सकता है, क्या किसी भी रूप में इसकी अनुमति दी जा सकती है या क्या किसी भी रूप में ‘जल्लीकट्टू’ की अनुमति नहीं दी जा सकती है।’’ संविधान पीठ के अन्य सदस्य हैं- न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी, न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस, न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय और न्यायमूर्ति सी. टी. रविकुमार।पीठ ने कहा कि तमिलनाडु सरकार की दलील है कि इन सांडों को प्रशिक्षित किया जाता है और उन्हें काफी स्नेह दिया जाता है।शीर्ष अदालत ने अपने 2014 के फैसले में कहा था कि सांडों को जल्लीकट्टू कार्यक्रमों या बैलगाड़ी दौड़ में शामिल होने वाले जानवरों के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है और देश भर में इन उद्देश्यों के लिए उनके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया है।
तमिलनाडु सरकार ने पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 में संशोधन किया था और अपने यहां जल्लीकट्टू की अनुमति दी थी।शीर्ष अदालत में बुधवार को इस मामले की सुनवाई शाम 5.30 बजे तक चली।न्यायमूर्ति रस्तोगी ने कहा कि समस्या यह है कि नियम किसी भी रूप में हो सकते हैं, लेकिन जमीनी हकीकत कभी मेल नहीं खाती।उन्होंने कहा, ‘‘सवाल सिर्फ इतना है कि हम जमीनी हकीकत का संज्ञान नहीं ले सकते, क्योंकि यह योजना से मेल नहीं खाती। हमें योजना की पड़ताल करनी है, न कि जमीनी हकीकत का नहीं।’’कुछ याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान ने कहा कि दिखावटी परिवर्तन के बावजूद सांड को सभी बेहतरीन सुरक्षा उपायों के साथ लड़ने के लिए मजबूर करना अब भी जानवर के प्रति क्रूरता है।कुछ अन्य याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता वी गिरि ने कहा कि किसी कानून की वैधता का परीक्षण या बचाव नियमों के संदर्भ में नहीं किया जा सकता है।