आज़ादी के लम्बे संघर्ष की कहानी तो सभी को मालूम है पर उसके बाद भी भारत ने कई तरह के संघर्ष झेले, ये संघर्ष केवल आज़ादी तक ही सीमित नहीं थे क्योंकि विभाजन के बाद के समय में पाकिस्तान की चाह रखने वाली जिन्ना की मुस्लिम लीग ने भारत में जो ज़हर घोला था उसकी कड़वाहट कई वर्षों तक विद्यमान रही जिसे दूर करने में महात्मा गाँधी ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की, दरअसल महात्मा गाँधी की यही भूमिका लोगों के मन में उनके प्रति प्रेम और सम्मान की भावना को दर्शाती है।
भारत को स्वंतंत्रता मिले तो 70 साल से अधिक का समय हो गया है इसी बीच यहाँ कुछ ऐसे तत्व भी पनपने लगे है जिनके मन में गोडसे के प्रति प्रेम और महात्मा गाँधी के प्रति घृणा की भावना जागृत होने लगी है, लेकिन आज हम आपको गाँधी जी से जुड़े कुछ ऐसे तथ्य के बारे में अवगत कराएंगे जिनसे शायद कभी किसी के मन में महात्मा गाँधी के प्रति कोई बुरा भाव आया भी हो तो वह दूर हो सकता है।
भारत की आजादी और बंटवारे का दिन 15 अगस्त नज़दीक आ रहा था. गांधी महसूस कर रहे थे कि लाल किले पर होने वाले आजादी के भव्य समारोह की बजाय नोआखाली के आम आदमी को उनकी ज्यादा जरूरत है. और इसलिए वे 9 अगस्त को कलकत्ता पहुंच गए. कलकत्ते के मुसलमानों ने उन्हें रोक लिया, और गाँधी नोआखाली नहीं जा सके. कलकत्ते की स्थिति बहुत गंभीर थी. वहां तो जैसे 15 अगस्त, 1946 के बाद से डायरेक्ट एक्शन कभी खत्म ही नहीं हुआ. कलकत्ते की गलियों और घरों में हिंदू-मुसलमानों ने सशस्त्र मोर्चे संभाल रखे थे. यह सब देखते हुए गाँधी जी ने कलकत्ता की गलियों का दौरा शुरू कर दिया. बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री सोहरावर्दी अब तक मुस्लिम लीग की राजनीति से दूध की मक्खी की तरह निकाल का फेंके गए थे. वे भी गांधी के साथ हो लिए. दोनों हैदरमेंशन की टूटी-फूटी हवेली में रहकर शांति प्रयास करते रहे. जैसे-तैसे शांति स्थापित हो गई. 15 अगस्त, 1947 को स्वाधीनता दिवस सौहार्दपूर्ण माहौल में मनाया गया. लेकिन यह शांति अस्थायी थी, ऐसा लगता है जैसे स्वाधीनता दिवस पर राष्ट्रपिता के प्रति सम्मान दिखाने के लिए हिंदू और मुसलमानों कुछ समय के लिए थम गए थे। 27 अगस्त तक पंजाब और सिंध से आने वाले हिंसा के समाचारों ने कलकत्ता में भी सांप्रदायिक उफान ला दिया. और वह शान्ति जो कुछ समय के थी फिर से अशांति में तब्दील हो गई। यह घटनाक्रम तूफान की गति से आगे बढ़ा. 30 अगस्त को सोहरावर्दी पर कुपित भीड़ ने हैदर-मेंशन वाले गांधी के निवास पर धावा बोल दिया. सोहरावर्दा तो वहां था नहीं, सो एक गुस्साए युवक ने अपनी लाठी गांधी पर ही मार दी। लेकिन यह वार खाली चला गया और बापू सुरक्षित बच गए। बापू ने यह सब देखते हुए कहा कि क्या आज़ादी की वो शान्ति वाली शाम एक ढोंग था? उनके सत्कर्मों का मूल्य समझने की ताकत हिंदू और मुसलमान दोनों खो चुके थे। अब 78 साल के बुढ़े गांधी के पास सिर्फ अपनी देह बची थी, जिसे वे दांव पर लगा सकते थे 1 सितंबर को महात्मा ने आमरण उपवास का निर्णय कर लिया। आजाद भारत में गांधी का यह पहला उपवास था. माउंटबेल के प्रेस सलाहकार एलन कैंपबेल जॉनसन ने इस उपवास के बारे में लिखा, ‘‘गांधी के उपवास में लोगों के अंतर्मन को झकझोर देने की कैसी अद्भुत शक्ति है, इसे तो सिर्फ ‘‘गांधी उपवास्य का साक्षी ही समझ सकता है।’’
गाँधी जी द्वारा रखे गए उपवास का एक चमत्कारी प्रभाव पड़ा. फारवर्ड ब्लॉक के नेता शरत बोस जो काफी दिनों से गांधी से नाराज चल रहे थे, उपवास के दूसरे दिन दौड़े चले आए। हिंदू महासभा के प्रमुख डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने वादा किया कि कल से हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और मुस्लिम लीग के गार्ड शहर की गलियों में गश्त करेंगे। दोनों संप्रदायों के कट्टरपंथी गुटों ने अपने हथियार बापू के चरणों में डाल दिए और उपवास तोड़ने की प्रार्थना की। बापू ने कहा, ‘‘परिवर्तन हो रहा है, लेकिन अभी नहीं। जीने की लालसा करना ईश्वर को द्रोह होगा इसलिए अभी और दृढ़ता से शांति का काम करो। ’’ उपवास का तीसरा दिन था, बापू ने मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चंद्र घोष से कहा, ‘‘मेरी जान बचाने के लिए दबाव मत डालो, जब स्वेच्छा से, यथार्थ से दिल्ली में एक्य हो जाएगा तो ही जीना चाहूंगा, अन्यथा मृत्यु श्रेयस्कर है। बंगाल प्रचार विभाग के डायरेक्टर ने चाहा कि गांधी जी की उपवास मुद्रा का फोटो छापने से प्रचार कार्य में सहायता मिलेगी. बापू ने मना कर दिया, ‘‘लोगों की क्षणिक दया-माया के लिए मैं अपनी क्षीण मुद्रा से अपील नहीं करना चाहता हूं.’’उपवास के चौथे दिन सोहरावर्दी, हिंदू महासभा के प्रांतपति ए.सी. चटर्जी और सरदार निरंजन सिंह तालीब ने गांधी जो को शहर में अमन-चैन बहाल होने की रिपोर्ट सौंपी और कहा कि अगर अब अशांति पैदा हुई तो वे तीन नेता स्वयं जिम्मेदार होंगे। रिपोर्ट देखने के बाद गाँधी को एहसास हुआ कि उनका मिशन कलकत्ता पूरा चुका था।