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केंद्र 65 श्रीलंकाई तमिलों की परेशानियों को करे खत्म : मद्रास हाई कोर्ट

मद्रास उच्च न्यायालय ने 1983 के दंगों के बाद श्रीलंका से भागे 65 तमिलों को नागरिकता प्रदान करने के पक्ष में पूरी मजबूती से तर्क रखे है।

मद्रास उच्च न्यायालय ने 1983 के दंगों के बाद श्रीलंका से भागे 65 तमिलों को नागरिकता प्रदान करने के पक्ष में पूरी मजबूती से तर्क रखे है। अदालत ने कहा है कि तमिलनाडु के जिस शिविर में यह रह रहे हैं, वहां स्थितियां ‘नारकीय’ हैं। 
इन तमिलों ने भारत को अपना स्थायी घर बनाने के उद्देश्य से श्रीलंका की समुद्री सीमा को पार किया और भारत पहुंचे लेकिन केंद्र ने इन्हें नागरिकता देने से इनकार किया है। वे दो दशकों से अधिक समय से कानूनी लड़ाई में लगे हुए हैं। हालांकि भारत सरकार ने उन्हें निर्वासित नहीं करने का वादा किया है, लेकिन भारतीय नागरिकता की उनकी मांग पर कोई फैसला नहीं किया है। 
याचिकाकर्ताओं की दुर्दशा पर सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाने और उनके लिए भारतीय नागरिकता हासिल करने के मानदंडों को शिथिल करने के लिए केंद्र से आग्रह करने के लिए उनकी याचिका पर पिछले हफ्ते मद्रास उच्च न्यायालय ने एक आदेश पारित किया। शरणार्थियों को मासिक नकद राशि, राशन, आवश्यक वस्तुएं, आवास, पोशाक सामग्री, बर्तन और मुफ्त शिक्षा मिलती है। 
नागरिकता के मुद्दे पर, तमिलनाडु सरकार का तर्क है कि वे एक अवैध मार्ग से पहुंचे और इसलिए उनकी शरणार्थी की स्थिति को नागरिकता में नहीं बदला जा सकता है। इस पर केंद्र का दृष्टिकोण भी राज्य के समान ही है। याचिकाकर्ताओं का दावा है कि वे गिरमिटिया मजदूरों के वंशज हैं जो औपनिवेशिक काल के दौरान श्रीलंका के चाय बागानों में बस गए थे, वे तमिल भाषी हैं और उनके पूर्वज तमिलनाडु से संबंध रखते हैं। 
न्यायाधीश जी.आर. स्वामीनाथन ने कहा, “एक अवैध प्रवासी इस तरह की छूट का दावा नहीं कर सकता है यदि वह समाज में चोरी-छिपे शामिल हो गया है। यहां ऐसा नहीं है। सरकार द्वारा स्थापित शिविरों में याचिकाकर्ताओं को रखा गया है।” अदालत ने केंद्र का ध्यान उन परिस्थितियों पर आकर्षित किया, जिन्होंने याचिकाकर्ताओं को भारत में शरण लेने और मानवीय आधार पर उनके मामले पर विचार करने के लिए मजबूर किया। 
अदालत ने यह पाया, “एक व्यक्ति जो अपने जीवन को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है, स्पष्ट रूप से उससे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह वीजा का इंतजार करेगा। वह ऐसा नहीं कर सकता। इसलिए, कानून की तकनीकी आवश्यकताओं के चश्मे के माध्यम से याचिकाकर्ताओं के मामले को देखना मानवीय दृष्टिकोण से सही नहीं होगा।” 

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