पश्चिम बंगाल में 2019 के लोकसभा चुनावों में अधिक से अधिक सीटें हासिल करने के लिए भाजपा और तृणमूल कांग्रेस एक-दूसरे पर ध्रुवीकरण का सहारा लेने का आरोप लगा रही है जिससे राज्य में चुनावी लड़ाई दिलचस्प हो गई है। कुछ साल पहले तक राज्य में एक छोटे दल की भूमिका निभाने वाली भाजपा एक नये विपक्ष के तौर पर उभरी है और वह एक समय प्रभावशाली रहे वाम दलों और कांग्रेस को पीछे धकेल रही है। पश्चिम बंगाल में भाजपा के पास केवल एक विधानसभा सीट और लोकसभा की दो सीटें हैं।
पश्चिम बंगाल में विचारधारा और लोगों की समस्याएं पारंपरिक रूप से चुनावी मुद्दा हैं और भाजपा को इस बार बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद है। 2011 से ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस के शासन वाले पश्चिम बंगाल में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 23 सीट जीतने का लक्ष्य रखा है।
पश्चिम बंगाल की राजनीति में धर्म और जाति की पैठ की बात स्वीकार करते हुये तृणकां के वरिष्ठ नेता और और राज्य के पंचायती मंत्री सुब्रत मुखर्जी ने इसके लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहराया और जोर देकर कहा कि उनकी पार्टी केवल उसके (भाजपा के) कथ्य का मुकाबला कर रही है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने आरोपों का खंडन किया और राज्य में सांप्रदायिक तनाव के लिए तृणकां की कथित तुष्टिकरण की राजनीति को जिम्मेदार ठहराया।
तृणकां और भाजपा दोनों अनुसूचित जाति समुदाय मतुआ को लुभाने का प्रयास कर रही है। इसमें ज्यादातर पिछड़े वर्ग के हिंदू शामिल हैं, जो बांग्लादेश से विस्थापित हुए हैं। इस समुदाय की दक्षिण बंगाल के उत्तरी 24 परगना और नादिया जिले में उल्लेखनीय उपस्थिति है। रानाघाट और बैरकपुर संसदीय सीटों पर भी मतुआ समुदाय की अच्छी खासी तादाद है।
फरवरी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उत्तरी 24 परगना के ठाकुरनगर में एक चुनावी रैली की थी और ‘बड़ी मां’ के नाम से जाने जानेवाली मतुआ समुदाय की कुलमाता बीनापानी देवी से मुलाकात की थी। मार्च में बीनापानी देवी की मौत के बाद उनके राजनीतिक झुकाव को लेकर परिवार की राय बंट गई।