गुजरात हाई कोर्ट ने एक व्यक्ति की वह याचिका खारिज कर दी है कि जिसमे उसने अपनी तीन साल की बेटी को पेश कराने का अनुरोध किया था। इस बच्ची को पहले उसकी तलाकशुदा पत्नी ने अनाथालय में रखा और फिर उसे गोद दे दिया। न्यायमूर्ति एस आर ब्रह्मभट और न्यायमूर्ति ए पी ठाकुर ने सोमवार को यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि बच्ची किसी ‘अवैध कब्जे’ में नहीं है। इस व्यक्ति की 2015 में शादी हुई थी।
दिसंबर, 2016 में उसके यहां बेटी पैदा हुई। जून 2017 में विभिन्न मतभेदों के चलते पति-पत्नी के बीच तलाक हो गया। याचिकाकर्ता ने अपनी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका में कहा कि बच्ची को पिता के (उसके) संरक्षण में दिया गया था क्योंकि उसकी मां उसका देखभाल करने को तैयार नहीं थी। उसने कहा कि फिर उससे तलाकशुदा पत्नी के साथ एक करार पर दस्तखत कराया गया जिसके अनुसार बच्ची को मां के संरक्षण में दिया गया।
इस करार के अनुसार वह बच्ची के संरक्षण पर कभी दावा नहीं करेगा। याचिकाकर्ता ने कहा कि बच्ची को संरक्षण में लेने के बाद उसकी तलाकशुदा पत्नी गायब हो गयी। वह अपनी बच्ची का संरक्षण पाने के लिए पारिवारिक कोर्ट भी पहुंचा लेकिन उसका अनुरोध खारिज कर दिया गया। इसके बाद उसने हाई कोर्ट में याचिका दायर की।
बच्ची की मां ने अपने जवाब में हाई कोर्ट से कहा कि बच्ची को जैविक पिता की मंजूरी के बगैर एक दंपत्ति को गोद दे दिया गया। उसने पहले अपनी बेटी को अनाथालय में रखा जिसने फिर बाल कल्याण समिति के आदेश पर उसे गोद दे दिया। बच्ची के पिता ने दावा किया कि वह उस दंपत्ति के अवैध कब्जे में है जिसने उसे गोद लिया है। हालांकि बाल कल्याण समिति ने कहा कि बच्ची किसी के अवैध कब्जे में नहीं है और उचित प्रक्रिया का पालन करने और कोर्ट से आदेश हासिल करन के बाद ही उसे गोद दिया गया है।
बच्ची के जैविक पिता ने उसका डीएनए परीक्षण कराने का भी दरख्वास्त किया जिस पर कोर्ट ने कहा कि इससे पता चलता है कि याचिकाकर्ता के मन में बच्चे के पितृत्व को लेकर संदेह है। पीठ ने कहा, ‘‘ बच्ची किसी अवैध कब्जे में नहीं है इसलिए बंदी प्रत्यक्षीकण याचिका विचारणीय नहीं है।’’