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गुमनामी में जी रहे हैं छत्तीसगढ़ में हिंसा के चलते विस्थापित आदिवासी

अधिनियम जंगलों में रहने के उनके अधिकार को मान्यता देता है और उन्हें उनके मूल निवास स्थान के स्वामित्व का कानूनी अधिकार देता है।

हिंसा की घटनाओं के चलते छत्तीसगढ़ से विस्थापित और तमाम सामाजिक सुरक्षा के लाभ से वंचित काफी संख्या में आदिवासी अपने पड़ोसी राज्यों में बड़ी दयनीय हालत में गुजर-बसर कर रहे हैं। दरअसल, सरकार द्वारा ‘वन अधिकार अधिनियम’ के प्रावधान का ‘‘कम इस्तेमाल’’ किए जाने के चलते उनकी यह हालत है। 
सामाजिक कार्यकर्ताओं का दावा है कि 2004-05 के दौरान ‘सलवा जुडूम’ के चलते हजारों आदिवासी छत्तीसगढ़ से पलायन कर गये थे। वर्ष 2005 से 2011 के बीच राज्य में माओवाद विरोधी अभियान ‘सलवा जुडूम’ के तहत सुरक्षा बलों की तैनाती की गयी थी। सामाजिक कार्यकर्ता राजू राणा का कहना है, ‘‘ये आदिवासी ओडिशा, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में दयनीय हालत में गुजर-बसर कर रहे हैं। पेयजल और बिजली तक उन्हें उपलब्ध नहीं है।
उन्हें बहुत कम पारिश्रमिक मिलता है। उनमें से अधिकतर लोगों के पास तो राशन कार्ड या मतदाता पहचान पत्र तक नहीं हैं तथा वे अपनी नागरिकता तक को साबित नहीं कर सकते हैं।’’ उन्होंने दावा किया, ‘‘ये राज्य उन्हें आदिवासी के तौर पर मान्यता नहीं देते, जिस वजह से वनभूमि पर उनका कोई अधिकार नहीं है और वे तमाम सामाजिक सुरक्षा के लाभों से वंचित रह जाते हैं। 
कई बार पुलिस और वन अधिकारियों ने उन्हें छत्तीसगढ़ वापस भेजने के लिये उनकी बस्तियों में आग लगा दी।’’ आदिवासी अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता शुभ्रांशु चौधरी का कहना है कि छत्तीसगढ़ की सीमा से लगे ओडिशा, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के जंगलों में ऐसी 248 बस्तियां हैं, जहां करीब 30,000 लोग रह रहे हैं। 
उन्होंने कहा कि इनमें से कुछ लोग अब अपने राज्य लौटना चाहते हैं। उन्हें वन अधिकार अधिनियम 2006 के अब तक कम इस्तेमाल किए गए प्रावधान का समुचित उपयोग किए जाने की छत्तीसगढ़ की नयी सरकार से उम्मीद जगी है। दरअसल, यह अधिनियम जंगलों में रहने के उनके अधिकार को मान्यता देता है और उन्हें उनके मूल निवास स्थान के स्वामित्व का कानूनी अधिकार देता है। 

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