पतित पावनी गंगा, श्यामल यमुना और अन्त: सलीला स्वरूप में प्रवाहित सरस्वती की रेती पर कुम्भ में पौष पूर्णिमा स्नान के साथ ही संयम, अहिंसा, श्रद्धा एवं कायाशोधन का‘कल्पवास’माघी पूर्णिमा स्नान के साथ ही खत्म हो गया और कल्पवासियों की घर वापसी शुरू हो गयी। त्रिवेणी में आध्यात्मिक संबल देने वाली रेती पर बसे तंबुओं की अस्थायी नगर में कल्पवासी आत्मा की शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति के लिए एक माह का कल्पवास करता है। श्रद्धालु यहाँ एक महीने तक संगम तट पर निवास करते हुए जप, तप, ध्यान, साधना, यज्ञ एवं दान आदि विविध प्रकार के धार्मिक कृत्य करते हैं।
कल्पवास का वास्तविक अर्थ है काया और कल्प। यह कायाकल्प शरीर और अन्त:करण दोनों का होना चाहिए। इसी द्विविध कायाकल्प के लिए पवित्र संगम तट पर जो एक महीने का वास किया जाता है उसे कल्पवास कहा जाता है। वैदिक शोध एवं सांस्कृतिक प्रतिष्ठान कर्मकाण्ड प्रशिक्षण केन्द, के आचार्य डा आत्माराम गौतम ने बताया कि पौष पूर्णिमा से ही एक महीने के कल्पवास का भी आरंभ हो जाता है और माघी पूर्णिमा के स्नान के साथ ही इसका समापन होता है।
कल्पवासी इसी दिन अपने घरों के लिए रवाना हो जाते हैं। उन्होंने बताया कि कल्पवासी तीर्थपुरोहितों के आचार्यत्व में मंत्रोच्चार के बीच मां गंगा और भगवान वेणी माधव एवं पूर्वजों का स्मरण कर त्याग और तपस्या के 21 नियमों को निष्ठा भक्ति के साथ निभाते हैं। कल्पवासी अपने शिविर के बाहर दरवाजे पर तुलसी का बिरवा लगाते हैं और जौ बोते हैं। प्रात:काल स्नान के बाद यहां जल अर्पित करते हैं और सांध्य बेला में दीपक जलाते हैं।