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प्रांतीय सशस्त्र बल के कांस्टेबल की बर्खास्तगी का आदेश निरस्त

याचिकाकर्ता को एक कांस्टेबल के तौर पर अपनी ड्यूटी करने से रोका गया। इसलिए याचिकाकर्ता अपना पिछला बकाया वेतन पाने का भी हकदार है। 

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण आदेश में उत्तर प्रदेश के प्रांतीय सशस्त्र बल (पीएसी) के एक कांस्टेबल की बर्खास्तगी का आदेश निरस्त कर दिया है। उस कांस्टेबल की सेवाएं वर्ष 1994 में उसके खिलाफ दर्ज एक आपराधिक मामले के आधार पर निरस्त कर दी गई थीं। हालांकि एफआईआर लिखे जाने के समय वह नाबालिग था।

पीएसी कांस्टेबल राजीव कुमार द्वारा दायर रिट याचिका स्वीकार करते हुए न्यायमूर्ति अजय भनोट ने कहा कि एफआईआर दर्ज होने और आरोप पत्र दाखिल किए जाने के समय याचिकाकर्ता की उम्र महज 10 वर्ष थी और निचली अदालत में सह आरोपियों के साथ ही उस पर भी मुकदमा चलाया गया और 2002 में उसे बरी कर दिया गया।

अदालत ने अपने 90 पेज के फैसले में कहा कि अपराध की गंभीरता को सामाजिक सच्चाई के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। ग्रामीण इलाकों में पुराने विवादों में परिवार के युवा सदस्यों को फंसाना आम बात है। यह न केवल अदालती प्रक्रिया का दुरुपयोग है, बल्कि हमारे सामाजिक ढांचे पर इसका दूरगामी प्रभाव भी पड़ता है।

इस मामले के संपूर्ण रिकार्ड को देखने के बाद अदालत ने कहा कि बाल न्याय कानून (जेजे एक्ट) के तहत मुकदमा चलाने के दौरान एक बच्चे की पहचान गुप्त रखने का प्रावधान है। लेकिन जांच या सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता की पहचान गुप्त रखने के कोई प्रयास नहीं किए गए और निचली अदालत ने भी एक बच्चे के अधिकार के प्रति अपने दायित्व का निर्वहन नहीं किया।

अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता पर जेजे एक्ट के तहत मुकदमा नहीं चलाया गया और कानून द्वारा उसे प्रदत्त सुरक्षा नहीं मुहैया कराई गई। इस आपराधिक मामले में बरी होने के बाद उस पर आपराधिक मुकदमा कभी नहीं चला। इस प्रकार याचिकाकर्ता द्वारा 2006 में सेवा में शामिल होते समय दिया गया घोषणा पत्र झूठा नहीं था। अदालत ने कहा कि इसे देखते हुए याचिकाकर्ता की बर्खास्तगी पूरी तरह से अवैध है और प्रतिवादी द्वारा मनमानी कार्रवाई कर याचिकाकर्ता को एक कांस्टेबल के तौर पर अपनी ड्यूटी करने से रोका गया। इसलिए याचिकाकर्ता अपना पिछला बकाया वेतन पाने का भी हकदार है।

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