हर महीने की चतुर्दशी को शिवरात्रि मनाई जाती है। शिवपुराण के मुताबिक, फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को जो शिवरात्रि आती है उसे महाशिवरात्रि कहते हैं। इस साल 21 फरवरी यानी शुक्रवार को महाशिवरात्रि मनाई जाएगी।
इस दिन भक्त व्रत रखते हैं और भोलेनाथ का आशीर्वाद पाने के लिए पूजा-अर्चना करते हैं। इस दिन जलाभिषेक का कार्यक्रम मंदिरों में पूरे दिन चलता रहता है। चलिए आपको शिवरात्रि और महाशिवरात्रि के बीच का अंतर बताते हैं।
ये है शिवरात्रि और महाशिवरात्रि के बीच में अंतर
शिवरात्रि हर महीने की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन आती है और उसे शिवरात्रि ही कहते हैं। जबकि शिवरात्रि जो फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी के दिन आती है उसे महाशिवरात्रि कहते हैं। 12 शिवरात्रियां पूरे साल आती हैं और उसमें से महाशिवरात्रि की मान्यता बहुत होती है। उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर में महाशिवरात्रि के दिन लोग दीपस्तंभ लगाते हैं। दरअसल लोग इसलिए दीपस्तंभ लगाते हैं ताकि शिव जी के अग्नि वाले अनंत लिंग का अनुभव लोगों को हो जाएं।
ये है महाशिवरात्रि की कथा
मान्यता है कि भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह महाशिवरात्रि के दिन हुआ था। लेकिन शिव पुराण में एक कथा बताई गई है जिसके मुताबिक भगवान विष्णु और ब्रह्मा में विवाद सृष्टि के शुरुआत में हुआ कि दोनों में से कौन श्रेष्ठ है। एक विशाल अग्नि-स्तंभ उनके बीच तब प्रकट हुआ था जब वह दोनों झगड़ रहे थे। उसे देखकर दोनों ही हैरान रह गए।
महाशिवरात्रि का त्योहार इस दिन से मनाया जाने लगा
विष्णु जी और ब्रह्मा जी उस स्तंभ का मूल स्त्रोत पता लगाना चाहते थे जिसके लिए वराह का रूप लेकर विष्णु जी पाताल की तरफ गए और आकाश की तरफ हंस का रूप लेकर ब्रह्मा जी गए। हालांकि उन दोनों को इतनी कोशिशें करने के बाद भी अग्नि-स्तंभ का आेर-छोर पता नहीं चल पाया। उसके बाद भगवान शिव ने उन्हें उस स्तंभ से अपने दर्शन दिए उसके बाद से ही भगवान शिव का प्रथम प्राकट्य महाशिरात्रि के रूप में उसी दिन से मनाया जाने लगा।
ये कथा जुड़ी है बेल-पत्र के बारे में
बेल-पत्र के बारे में एक कथा पौराणिक ग्रंथों में है। समुद्र-मंथन से इस कथा का जुड़ाव है। जब समुद्र का मंथन हुआ तो अमृत से पहले एक हलाहल विष निकला। उस विष में बहुत ही गर्मी थी जिसकी वजह से धरती के सभी जीव-जंतु मरने लग गए थे और वह सृष्टि के लिए एक संकट बन गया था।
नीलकंठ का नाम इसलिए शिव का पड़ा
सृष्टि को बचाने के लिए अपने कंठ में उस विष को भगवान शिव ने धारण कर लिया। शिव का कंठ भी उस घातक विष से नीला पड़ गया। इसी वजह से नीलकंठ का नाम भगवान शिव को दिया गया। भगवान शिव का मस्तक भी उस विष से गर्म हो गया क्योंकि वह बहुत की गर्म था। उसे पीने के बाद भगवान शिव के शरीर में पानी की कमी हो गई।
प्रसन्न होते हैं भगवान शिव
भोलेनाथ के मस्तक पर बेल-पत्र देवताओं ने चढ़ाए और जल अर्पित किया। दरअसल बेल-पत्र की तासीर ठंडी होती है जो कि शरीर में पानी की कमी को सही करता है। बेल-पत्र से शिव जी को राहत मिली और वह प्रसन्न हो गए। इसलिए महाशिवरात्रि के दिन बेल-पत्र और जल या दूध भोलेनाथ को अर्पित करते हैं ताकि वह प्रसन्न हो जाएं।