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ये खास रिश्ता है शिरडी के साईं बाबा और दशहरा के बीच, जानिए इसके पीछे की यह मुख्य तीन कहानियां

मान्यता है कि जो भी भक्त सच्चे मन से शिरडी के साईं बाबा की पूजा-अर्चना करता है या पूरा दिन उसके मुख पर उनका नाम होता है तो बाबा उनकी हर मनचाही मुराद पूर्ण करते हैं।

मान्यता है कि जो भी भक्त सच्चे मन से शिरडी के साईं बाबा की पूजा-अर्चना करता है या पूरा दिन उसके मुख पर उनका नाम होता है तो बाबा उनकी हर मनचाही मुराद पूर्ण करते हैं। साथ ही खुशियों से उनकी झोली को भर देते हैं। साईं बाबा की पूजा का दिन गुरुवार का माना गया है। इस दिन भक्त बाबा को प्रसन्न करने के लिए और अपनी मनोकामनाएं पूरी करने के लिए व्रत करते हैं। 
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किसी भी जाति या धर्म का इंसान शिरडी वाले साईं बाबा की पूजा कर सकता है। साईं बाबा अपने हर भक्त की प्रार्थना को सुनते हैं फिर चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का क्यों न हो। मान्यता है कि एक चमत्कारिक संत साईं बाबा हैं। कहा जाता है कि झोली भरकर लौटता है उनकी समाधि पर कोई भी जाता है। लेकन क्या आप जानते हैं दशहरे या विजयादशमी से एक खास कनेक्‍शन शिरडी वाले साईं बाबा का है। चलिए आपको इसके पीछे की बातें आज हम बताते हैं। 
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तात्या की मौत
मान्यताओं के अनुसार,साईं बाबा ने रामचन्द्र पाटिल नामक अपने भक्त को दशहरे से कुछ दिन पहले कहा था कि ‘तात्या’की मौत विजयादशमी पर बात कही थी। साईं बाबा की परम भक्त बैजाबाई थीं। तात्या उनकी का पुत्र था। साईं बाबा को ‘मामा’कहकर तात्या बोलते थे। यही कारण था कि तात्या को जीवनदान देने का निर्णय साईं बाबा को लिया था। 
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रामविजय प्रकरण 
साईं बाबा को जब पता लगा कि जाने का समय अब आ गया है तो ‘रामविजय प्रकरण’ (श्री रामविजय कथासार)श्री वझे को सुनाने की आज्ञा उन्होंने दी थी। एक सप्ताह रोजाना पाठ श्री वझे ने सुनाया। उसके बाद आठों प्रहर पाठ करने की उन्हें बाबा ने आज्ञा दी। उस अध्याय का द्घितीय  आवृत्ति श्री वझे ने 3 दिन में पूरी कर दी और ऐसा 11 दिन इस प्रकार बीत गए। 
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उसके बाद उन्होंने 3 दिन और पाठ किया। लगातार पाठ करके बिल्कुल ही श्री वझे को थकान हो गई थी इसलिए विश्राम करने के लिए उन्होंने आज्ञा मांगी। बिल्‍कुल अब शांत बाबा बैठ गए और वह अंतिम क्षण की आत्मस्थित की प्रतीक्षा करने लगे। 
समाधि ली साईं बाबा ने
1918 में 15 अक्टूबर दशहरे के दिन शिरडी में ही समाधि साईं बाबा ने ले ली थी। साईं बाबा के शरीर का तापमान 27 सितंबर 1918 को बढ़ना शुरु हो गया था। अन्न-जल सब कुछ ही उन्होंने त्याग दिया था। कुछ दिन पहले जब बाबा के समाधिस्त होने वाला था तब तात्या की तबीयत बहुत खराब हो रही थी। उसका जिंदा रहना भी मुश्किल हो गया था। मगर 15 अक्टूबर 1918 को साईं बाबा ने तात्या की जगह ब्रह्मलीन में अपने नश्वर शरीर का त्याग हो गए। विजयादशमी यानी दशहरा उस दिन था। 
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इस लेख में जो जानकारी और सूचना हमने दी है वह सामान्य जानकारी पर ही आधारित है। इनकी पुष्टि punjabkesari.com नहीं करता है। अगर आप इन पर अमल कर रहे हैं तो संबंधित विशेषज्ञ से पहले आप संपर्क करके इस बात की पूरी पुष्टि कर लें। 

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