नई दिल्ली : जकार्ता एशियाई खेलों में भारतीय फुटबॉल टीम को भाग लेने के लिए सरकार और आईओए द्वारा हरी झंडी नहीं मिल पाई। हैरानी वाली बात यह है कि एशियाड में शानदार रिकार्ड रखने वाले और 1951 एवम् 1962 के खिताब विजेता भारत की फुटबॉल टीम को नहीं भेजा गया पर बेहद शर्मनाक प्रदर्शन के साथ वापस लौटी हैंडबाल टीम खेलने गई और देश का नाम खराब कर लौटी। वालीबाल और बास्केटबाल को भी भेजा गया और यहां भी कोई बड़ा तीर नहीं चलाया गया।
यह हाल तब है जबकि भारत में फुटबॉल को पसंद करने वाले दुनिया के किसी भी देश से ज़्यादा हैं। यह जानते हुए भी इस खेल मे भारत कहीं नहीं टिकता, वर्ल्ड कप देखने वाले करोड़ों में थे। एक ओर तो देश की सरकार और खेल मंत्रालय फुटबॉल को बढ़ावा देने की बात करते हैं, अपनी मेजबानी में अंडर 17 वर्ल्ड कप का आयोजन कराया जाता है तो दूसरी तरफ फुटबॉल को बेइज्जत किया जाता है। फुटबॉल की अनदेखी कर खराब रिकार्ड वाले और कम लोकप्रिय खेलों को बढ़ावा देने वाली नीतियां भारतीय फुटबॉल प्रेमियों के गले नहीं उतर पा रही।
मेसुत ओजिल ने लिया फुटबॉल से संन्यास
उनकी राय में यदि फुटबॉल सचमुच सरकार के लिए प्राथमिकता वाला खेल है तो एशियाई खेलों, ओलंपिक क्वालीफायर और वर्ल्डकप क्वालीफायर के लिए एआईएफएफ के साथ-साथ सरकार को भी गंभीरता दिखाने की ज़रूरत है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी जब-तब फुटबॉल की वकालात करते रहे हैं। अतः वक्त आ गया है कि सरकार और उसका खेल मंत्रालय उस खेल पर कड़ी नज़र रखे जिसमें हमारी भागीदारी नहीं थी, फिर भी रूस में खेले गये वर्ल्ड कप को 20 करोड़ भारत वासियों ने देखा।
ऐसा इसलिए चूँकि फुटबॉल पूरी दुनिया का खेल है। बस हम पीछे रह गये और निरंतर पिछड़ते जा रहे हैं। ज़रूरत इस बात की है कि सरकार खुद इस खेल और नकारा फेडरेशन पर करीब से नज़र रखे। क्रिकेट के पागलपन में डूबे देश को यह भी पता है कि फुटबॉल सब खेलों का बाप है। क्रिकेट की उसके सामने कोई हैसियत नहीं है और हॉकी तो कहीं भी नहीं टिकती। फुटबॉल जानकार और एक्सपर्ट की राय मे भारतीय फुटबॉल की ग्रासरूट स्तर से चीरफाड़ की ज़रूरत है।
(राजेंद्र सजवान)