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हॉकी और बिंद्रा की कामयाबी कहीं इतिहास न बन जाए ?

अब देश की नजरें टोक्यो ओलंपिक पर लगी हैं। पुरुष और महिला टीमें लंबे सूखे को खत्म करने के लिए दृढ़ संकल्प हैं। यदि इस बार हमारी टीम कोई भी पदक जीत पाई तो हॉकी प्रेमियों, खिलाड़ियों, पूर्व खिलाड़ियों के चेहरों की रौनक लौट जाएगी।

 अभिनव बिंद्रा इसलिए उबाऊ जीवन जी रहे हैं क्योंकि वर्षों से वह अकेले ओलंपिक स्वर्ण विजेता हैं और जब बार-बार उनका उल्लेख किया जाता है या पूछा जाता है तो वह जवाब देने की बजाय उबासी लेना बेहतर समझते, हाल ही में एक सवाल के जवाब में बिंद्रा ने भारतीय खेलों की दुखती राग पर हाथ रख दिया।  
16 साल बीतने के बादभी बिंद्रा एकाकी स्वर्ण विजेता हैं और कभी-कभार तो इस उपलब्धि को सजा जैसा भी बोल देते  हैं। सुशील कुमार ऐसे अकेले खिलाड़ी हैं जिसने ओलंपिक में दो पदक जीते हैं। बीजिंग और लंदन ओलंपिक में क्रमशः कांस्य और रजत पदक जीतने वाले इस श्रेष्ठ पहलवान ने हालांकि एक और ओलंपिक खेलने के लिए कमर कस रखी है। एक ओलंपिक पदक जीतने वाले खिलाड़ी कई  और हैं लेकिन ओलंपिक खेलों में अनेक खिलाड़ियों ने दो, चार और इससे भी ज्यादा पदक जीते हैं।
 जहां तक भारतीय कामयाबी की बात है तो सर्वाधिक पदक हॉकी में जीते हैं। आठ ओलंपिक गोल्ड भारतीय  हॉकी की बादशाहत की कहानी कहते हैं। लेकिन इस ऐतिहासिक घटना को वर्षों बीत चुके है। ध्यान चंद और बलबीर सिंह सीनियर ने एक ऐसा रिकार्ड कायम किया है जिसे छूना तो दूर उसकी परछाईं तक पहुंच पाना भी हमारे  खिलाड़ियों के लिए संभव नहीं हो पा रहा। दोनों महान खिलाड़ियों ने 3-3 ओलम्पिक गोल्ड जीत कर भावी खिलाड़ियों के सामने एक ऐसी चुनौती रखी जोकि पिछले 60 सालों से भारतीय हॉकी को मुहं चिढा रही है। बेशक, बिंद्रा की तरह भारतीय हॉकी, उसके कर्णधार, खिलाड़ी और हॉकी प्रेमी सभी उकता गए हैं। 1980 के मास्को ओलंपिक में जीता हॉकी का गोल्ड आधा-अधूरा ही माना जाता है। 
अमेरिकी बायकाट के चलते ऑस्ट्रेलिया, हालैंड, जर्मनी सहित  छह टाप देशों के भाग नहीं लेने के कारण ही भारत को गोल्ड मिला था। उसके बाद कि कहानी बेहद निराशाजनक रही है। हर ओलंपिक से खाली हाथ और अपमान एवम बहानों के साथ लौटने का सिलसिला जारी है। बार-बार दावे और फिर कुछ और दावे करना भारतीय हॉकी की फितरत बन गई है।
 अब देश की नजरें टोक्यो ओलंपिक पर लगी हैं। पुरुष और महिला टीमें लंबे सूखे को खत्म करने के लिए दृढ़ संकल्प हैं। यदि इस बार हमारी टीम कोई भी पदक जीत पाई तो हॉकी प्रेमियों, खिलाड़ियों, पूर्व खिलाड़ियों के चेहरों की रौनक लौट जाएगी। सच्चाई यह है कि भारतीय हॉकी के चाहने वालों की हालत अभिनव  बिंद्रा से भी बदतर है। बिंद्रा एकाकी महसूस कर रहे हैं तो हॉकी नाकामी के बोझ से नहीं उबर पा रही।

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