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इमरजेंसी का सबसे बड़ा ‘सबक’!

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आज के दिन 1975 में जब स्व. इन्दिरा गांधी ने प्रधानमन्त्री के पद पर रहते हुए इमरजेंसी लगाने की घोषणा की थी तो कई प्रमुख राष्ट्रीय अंग्रेजी अखबारों ने जहां अपने सम्पादकीय कोरे छोड़े थे वहीं पंजाब केसरी के संस्थापक अमर शहीद लाला जगत नारायण जी और सम्पादक शहीद शिरोमणि पिताश्री रोमेश चन्द्र जी ने अपने लिखे जाने वाले सम्पादकीय के चारों ओर काले हाशिये खींचकर प्रबुद्ध पाठकों को यह संदेश दिया था कि अब लाला जी और रोमेश जी की लेखनी तभी चलेगी जब इमरजेंसी हटेगी। दरअसल देश के सभी प्रतिष्ठित सम्पादकों ने इमरजेंसी का विरोध करते हुए यह एेलान किया था कि पत्रकारिता को गुलाम बना दिया गया है। अखबारों पर सेंसरशिप लागू करके तब की सरकार ने खबरों को जिस तरह प्रभावित करने की कोशिश की उससे बड़े-बड़े अखबार सरकारी विज्ञप्तियों के पोस्टर बनकर रह गये थे। पूरा भारत इस परिवर्तन से अवाक् था क्यों​िक सभी प्रमुख विरोधी राजनैतिक दलों के बड़े-बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। पूरा देश जैसे गूंगा और बहरा बना दिया गया था।

इसके बाद 12 जून 1975 को स्व. इंदिरा गांधी का रायबरेली से लोकसभा चुनाव इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश स्व. जगमोहन लाल सिन्हा द्वारा अवैध करार दिये जाने के साथ ही राजनीतिक फिजां बदल गई। इमरजेंसी के लागू होने के बाद जमाखोरों और चोर बाजारियों पर लगाम कस दी गई। सरकारी दफ्तरों में काम ठीक समय पर होने लगा, बसें और ट्रेनें समय पर आने-जाने लगीं। निचले स्तर पर भ्रष्टाचार लगभग न के बराबर हो गया। महंगाई की दर उल्टी घूमने लगी और यह शून्य तक पर आ गई मगर जो आम लोगों को नहीं मिला वह उनकी मौलिक आजादी और स्वतन्त्र निर्णय का अधिकार। सरकार के मत से सहमत होना उनके लिए जरूरी सा बन गया और अपनी अभिव्यक्ति को अपने भीतर ही दबाये रखना वक्त का नियम बन गया। उस वक्त कहा जाता था कि when Mrs. Gandhi wanted media to bow but they fell on her feet और इसके बाद इंदिरा ने लोकतंत्र के अहम स्तम्भों, न्यायपालिका और कार्यपालिका को भी नपुंसक तथा गुलाम बना डाला था।

भारत के लोकतान्त्रिक लोगों को यह प्रतिबन्ध भीतर से इस कदर साल रहा था कि वे इंदिरा जी के दिये गये ‘बीस सूत्री कार्यक्रम’ के लाभार्थी होने का सार्वजनिक तौर पर तो एेलान करते थे मगर निजी तौर पर इसे मात्र एक ढकोसला बताते थे। इमरजेंसी के साल भर पूरा होने के बाद जेलों में बन्द विपक्षी राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं की सहनशक्ति जवाब देने लगी थी और वे माफी मांग-मांग कर रिहा होने लगे थे। आम जनता के दिल में सरकार की कलाबाजियों की तरफ कोई आकर्षण नहीं था और वह अपना मुंह बान्धे सरकार के कामों को मूकदर्शक बने देख रही थी। इस स्थिति ने इंदिरा जी को भी भ्रम में डाल दिया और उन्हीं की सरकार की खुफिया एजेंसियों ने भी लोगों का मन पढ़ने में गफलत कर डाली।

इसकी वजह यह थी कि जब स्वास्थ्य कारणों से जेलों में बन्द विपक्ष के बड़े नेताओं को सरकार ने पेरोल पर रिहा करना शुरू किया तो उनके प्रति आम जनता ने खास लगाव नहीं दिखाया। सबसे पहले पेरोल पर छूटने वाले ओडिशा के कद्दावर नेता बीजू पटनायक थे। उन्होंने जेल से रिहा होने पर वक्तव्य जारी किया और चेतावनी दी कि इंदिरा जी ने इमरजेंसी लागू करके अन्तर्राष्ट्रीय जगत में भारत के सम्मान को बहुत नीचे गिरा दिया है। इसके बाद लगातार विपक्षी नेताओं को जेल से छोड़ा जाने लगा और 18 महीने बाद इमरजेंसी को हटा लिया गया और लोकसभा चुनावों की घोषणा कर दी गई। इमरजेंसी के रूप में चल रही तानाशाही के बीच दैनिक पंजाब केसरी के संस्थापक अमर शहीद लाला जगत नारायण जी को भी गिरफ्तार कर फिरोजपुर जेल में डाल दिया गया। हमारे पूरे प​िरवार पर नजर रखी जाने लगी और बिजली चोरी जैसे आरोप लगाए गए।

वयोवृद्ध लाला जी की तबीयत खराब होने लगी तो उन्हें राजेन्द्रा अस्पताल पटियाला शिफ्ट किया गया वहीं पर एक रात पंजाब के सीएम रहे ज्ञानी जैल सिंह भेष बदलकर उनके पास आए और लाला जी ने आंखें खोलीं, ज्ञानी जी ने फरमाया कि लाला जी मैं आपकी बहुत इज्जत करता हूं आैर आपसे गुजारिश कर रहा हूं कि अगर आप एक कागज पर यह लिख दें कि मैं इमरजेंसी के खिलाफ नहीं हूं तो आपको रिहा कर दिया जाएगा। इस पर लाला जी ने कहा ​िक जाकर अपनी पीएम इंदिरा गांधी से कह दो कि मैं 14 साल अंग्रेजों की जेल में रहा हूं और उनके जुल्मो-सितम की परवाह नहीं की तो तुम लोग हो ही क्या? इसके बाद ज्ञानी जी वहां से चले गए। दरअसल सरकार को डर था कि लाला जी को कुछ हो न जाए इसीलिए यह दाव चलाया गया था। उधर सम्पादक शहीद शिरोमणि पिताश्री रोमेश जी भी इस इमरजेंसी को लेकर कोर्ट-कचहरी के चक्करों में दिनभर उलझे रहते आैर शाम को समाचार सेंसरशिप की पंगेबाजी के जाल से निकलकर बड़ी मुश्किल से अखबार निकालते। हमारी बिजली काट दी गई थी और तब हमने ट्रैक्टर इंजन से अखबार प्रकाशित कर बेखौफ और सच्चाई भरी पत्रकारिता की एक नजीर स्थापित की थी।

दरअसल बाद में इमरजेंसी हटाने की असली वजह यह थी कि इंदिरा जी अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर भारत को लोकतान्त्रिक देशों के खेमे में रखना चाहती थीं और दूसरा उन्हें विश्वास था कि लोग उनके द्वारा किये गये कामों का समर्थन करते हैं। उनके विरुद्ध जनभावना नहीं है क्योंकि लोगों का जीवन अपेक्षाकृत सरल बनाने के प्रयास किये गये हैं। खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट भी कह रही थी कि सरकार के खिलाफ जनरोष नहीं है मगर जब चुनाव हुए तो पूरे उत्तर-पश्चिम भारत में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया मगर दक्षिण भारत में इंदिरा जी का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सका। दक्षिण के चारों राज्यों में कांग्रेस की सफलता पहले जैसी ही रही। इसे कुल 153 सीटें मिलीं।

असल में इमरजेंसी के बाद 1977 में हुआ चुनाव भारत के लोगों की राजनैतिक चेतना की अग्नि परीक्षा था। इस चुनाव की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसे नेताओं ने नहीं बल्कि आम जनता ने लड़ा था। पंचमेल खिचड़ी की तरह सभी विपक्षी दल एक नई ‘जनता पार्टी’ बनाकर इसके भीतर आ गये थे। इसमें प्रधानमन्त्री पद के दावेदारों की कमी नहीं थी। बेशक आचार्य कृपलानी व जयप्रकाश नारायण जैसे तपे हुए नेताओं का इसे संरक्षण प्राप्त था। इनका एकमात्र ध्येय इंदिरा जी को कुर्सी से उतारना था क्योंकि वे उन्हें अधिनायकवादी शासक मानते थे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने इमरजेंसी का समर्थन किया था और इसका गठबन्धन कांग्रेस के साथ भी था मगर 1977 के चुनावों में इस पार्टी के वोट बैंक ने भी विद्रोह करके विपक्षी जनता पार्टी के पक्ष में मत दिया था हालांकि मार्क्सवादी पार्टी जनता पार्टी के साथ थी। यदि हम और गौर से देखें तो पायेंगे कि इमरजैंसी के दौरान आम जनता के बीच जिस प्रकार का तालमेल बैठा वह राजनैतिक दलों के लिए एक सबक था।

इन चुनावों में हिन्दू- मुसलमान के नाम पर वोट बैंक बनाने की राजनीति ने दम तोड़ दिया था। उत्तर प्रदेश व बिहार की विभिन्न लोकसभा सीटों पर जनसंघ कोटे से खड़े हुए प्रत्याशियों को मुस्लिम मतदाताओं ने थोक के भाव मत दिये थे। दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम स्व. बुखारी खुद दिल्ली से जनसंघ कोटे के जनता पार्टी उम्मीदवारों के पक्ष में चुनाव प्रचार कर रहे थे। यह अपने लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए आम जनता का आन्दोलन था जिसे नेता नहीं बल्कि खुद जनता चला रही थी। कहने का आशय यह है कि जब भी भारत में आम जनता के लोकतान्त्रिक अधिकारों पर कुठाराघात किया जाता है तो लाख लालच के बावजूद जनता इसे कबूल नहीं करती। इमरजेंसी का सबसे बड़ा सबक यही है जो भारत में हर दौर में मौजू बना रहेगा।

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