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राजनीति में हिंसा का खेल?

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भारत की राजनीति में हिंसा के लिए कोई भी स्थान किसी भी स्तर पर नहीं हो सकता है। जिस देश ने अंग्रेजों की सत्ता से छुटकारा ‘अहिंसा’ के मार्ग से पाया हो, उसमें हिंसा का रास्ता अपनाने की बात केवल वे लोग ही कर सकते हैं जिन्हें न तो इस देश की संस्कृति में विश्वास हो और न ही जिन्हें संविधान में यकीन हो। जब कोई राजनीतिक नेता या व्यक्ति हिंसा के मार्ग से अपने विरोधी दल के लोगों को समाप्त करने की तजवीज पेश करता है तो उसमें और किसी नक्सलवादी में कोई अन्तर नहीं रहता। नक्सलवादी भी सत्ता पर काबिज लोगों के विरुद्ध हिंसात्मक तरीके अपना कर शासन पर कब्जा करना चाहते हैं और इसके लिए सामान्य जन को उकसाते हैं। लेकिन एेसे विचारों का भारत की जनता ने हमेशा ही तिरस्कार किया और विकल्प के रूप में एेसे राजनीतिक दलों के लिए अपने दरवाजे खुले रखे जो लोकतान्त्रिक पद्धति से वैचारिक स्तर पर लड़ाई लड़ते हुए ‘मतपत्रों’ के माध्यम से सत्ता परिवर्तन की हिमायत करते हैं। हम पूरे भारत में आज जिस भारतीय जनता पार्टी को सबसे बड़े दल के रूप में देख रहे हैं, वह वैचारिक अहिंसक लड़ाई का ही परिणाम है। भाजपा के विचारों से सहमत या असहमत हुआ जा सकता है परन्तु इसके किसी भी नेता ने आज तक हिंसा के मार्ग का समर्थन नहीं किया।

भाजपा की असली ताकत यही है कि इसने अपने विचारों से आम जनता के बहुसंख्य भाग को प्रभावित करने में सफलता प्राप्त की। इसके राष्ट्रवाद में हिंसा का कहीं भी कोई स्थान नहीं है। यह पार्टी संसद में केवल दो सीटें प्राप्त करने और लगभग सभी राज्यों में सत्ता से बाहर रहने के बावजूद अपने विरोधी पक्ष को वैचारिक स्तर पर ही हराने में कामयाब इसलिए हो पायी कि इसने लोकतान्त्रिक प्रणाली के तहत सड़कों पर मजबूत विपक्षी दल की भूमिका का निर्वाह किया। हो सकता है कि कई बार इस पार्टी के कार्यकर्ताओं की अपने विरोधियों से हिंसक झड़पें भी हुई हों मगर इसके नेताओं ने हमेशा कानून के अनुसार विवाद का हल होने पर ही जोर दिया। तर्क दिया जा सकता है कि इस पार्टी ने धार्मिक गोलबन्दी के आधार पर अपना जनाधार बढ़ाया परन्तु उसमें हिंसा का प्रवेश इसने नहीं होने दिया। यह भावुकता की भावनामूलक राजनीति तो हो सकती है मगर व्यावहारिक हिंसा की नहीं। हम एेसी राजनीति को घृणा या प्रेम के दायरे में रख कर जरूर देख सकते हैं परन्तु हिंसा की वकालत के खांचे में किसी भी तरह नहीं डाल सकते।

लेकिन प. बंगाल भाजपा के अध्यक्ष दिलीप घोष ने जिस तरह खुली हिंसा की वकालत करते हुए सार्वजनिक सभा में यह बयान दिया है कि ‘राज्य में यदि उनकी पार्टी सत्ता में आई तो वह फिल्म शोले के गब्बर सिंह की तरह गोलियां गिन-गिन कर तृणमूल कांग्रेस के गुंडों का सफाया कर देगी और मुठभेड़ों में उनका खात्मा कर देगी’, पूरी तरह भाजपा के मान्य सिद्धान्तों के खिलाफ है और खुले आम हिंसा का राजनीति में प्रयोग है। इस प्रकार के वक्तव्य से भाजपा की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगना स्वाभाविक है। अपने राजनीतिक विस्तार के लिए यदि कोई भाजपा नेता इस प्रकार के रास्ते अपनाने का खुलेआम एलान करता है तो वह केन्द्र में सत्ता पर काबिज अपनी ही पार्टी की सरकार की आतंकवाद के विरुद्ध चलाये जा रहे अभियान का मजाक उड़ाता है। इतना ही नहीं बल्कि भाजपा के विरोधियों के हाथ में वह हथियार भी पकड़ा देता है जिसका उपयोग वे इस पार्टी को उग्रवादी संगठन बता कर कर सकें। श्री दिलीप घोष को यह समझना होगा कि प. बंगाल क्रान्तिकारियों की धरती भी है और विचार मनीषियों की भी। पिछले दिनों शान्ति निकेतन के दीक्षान्त समारोह में शिरकत करने प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी स्वयं गए थे। उसमें प. बंगाल की मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी भी थीं। दोनों ही नेताओं ने इस समारोह में जो सन्देश दिया वह यही था कि बंगाल मानवीय सभ्यता का ‘सरस सौपान’ पूरी दुनिया को इस प्रकार दिखाता रहा है कि मानव का चहुंमुखी विकास सुनिश्चित हो। यह कार्य हिंसा से नहीं बल्कि वैचारिक क्रान्ति से ही संभव है।

यह भी विचारणीय मुद्दा है कि इस राज्य में मार्क्सवादियों का 37 वर्ष से स्थापित शासन ममता दी इसीलिए उखाड़ने में सक्षम हो सकीं कि उन्होंने आम बंगाली में अपने विचारों के प्रति सम्मोहन पैदा किया। मां, माटी और मानुष के राग को पकड़ कर ममता दी ने जिस प्रकार इस राज्य की सड़कों पर संघर्ष किया उसमें सत्ता की हिंसा का विरोध किया जाना प्रमुख रहा परन्तु इसके प्रत्युत्तर में उन्होंने हिंसक मार्ग अपनाने की वकालत कभी नहीं की। बेशक ममता दी की सरकार अब प. बंगाल में है और भाजपा उसका विरोध कर रही है। ये आरोप भी लगे हैं कि पंचायत चुनावों में सत्ताधारी दल के लोगों ने हिंसा का प्रयोग किया है। मगर इसका जवाब हिंसा के रास्ते से विरोधियों को मिटाने का नहीं हो सकता। इसका जवाब वही हो सकता है जिसे ममता दी ने मार्क्सवादियों को हटाने के लिए अपनाया था। क्या कोई यकीन कर सकता है कि जिस ममता बनर्जी को कभी मार्क्सवादी शासन के चलते कोलकाता की राइटर्स बिल्डिंग (राज्य सचिवालय) से सिर के बाल पकड़ कर बाहर निकाला गया हो एक दिन वही उसी बिल्डिंग में बैठ कर पूरे राज्य का शासन चलाएंगी। लोकतन्त्र की यही ताकत होती है और यह अहिंसक रास्तों से ही पैदा होती है।

राजनीतिज्ञ किसी भी परिस्थिति में आतंकवादी की भाषा नहीं बोल सकता है और जो राजनीतिज्ञ एेसी भाषा बोलता है वह राजनीति में रहने के उसी क्षण अयोग्य हो जाता है। राज्य भाजपा के दूसरे नेता श्री चन्द्र बोस ने जिस तरह से दिलीप घोष के वक्तव्य को लोकतन्त्र विरोधी और भाजपा के विचारों के खिलाफ बताया है उससे यह तो सिद्ध होता है कि इस पार्टी में एेसे लोगों की कमी नहीं है जो हर हालत में प्रजातन्त्र के उच्च मानकों को थामे रखना चाहते हैं परन्तु यह भी बताता है कि पार्टी में एेसे लोग भी हैं जो एक ही झटके में सारी सीमाएं लांघ कर राजनीति को आपसी रंजिश की हथियारों से लैस जंग में बदल देना चाहते हैं। इन्हें मालूम नहीं है कि भाजपा का प्रसार जंगी अखाड़ों की नुमाइश से नहीं बल्कि श्री राम के उस नाम से हुआ है जो सदाचार और कर्तव्यनिष्ठा की प्रतिमूर्ति माने जाते हैं। परन्तु लगता है दिलीप घोष जैसे व्यक्ति अब भी 1947 में जी रहे हैं। इन्हें पता होना चाहिए कि तब का पूर्वी बंगाल से ‘पूर्वी पाकिस्तान’ हुआ भू-खंड अब ‘बंगलादेश’ कहलाया जाता है। भारत का पं. बंगाल तो वह अनुपम क्षेत्र है जहां कि संस्कृति पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को प्रकाश स्तम्भ के रूप में दैदीप्यमान करती रहती है। यही तो वह सरजमीं है जहां स्वामी विवेकानन्द ने जन्म लेकर उद्घोष किया था कि भारत प्रेम व भाईचारे का एेसा महासागर है जिसमें न कितने रत्न दुनिया में अपनी चमक बिखरने के लिए पड़े हुए हैं।

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