सुप्रीम कोर्ट बीते 2 दिनों से देश से जुड़े कई अहम मुद्दों पर अपने फैसले सुनाए है। सबरीमाला मंदिर को लेकर बड़ा फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा की महिलाएं भी बराबरी की हकदार है। साथ ही कोर्ट ने बोला की मंदिर में महिलाओं का प्रवेश निषेध असंवैधानिक है। वहीं केरल के सबरीमाला मंदिर में 10-50 साल की उम्र की महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध था लेकिन कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा इस हर उम्र की महिलाएं मंदिर में प्रवेश कर सकती है।
लम्बे समय से इस मामले को लेकर चल रहा विवाद को ख़त्म करते हुए महिलाओं के हक़ में अपना फैसला सुनाया है। मंदिर प्रबंधन ने महिला के प्रवेश पर पुराणी परंपरा के चलते महिलाओं का प्रवेश वर्ज़ित था जिसका कारण मासिक धर्म है क्योकि मासिक धर्म के समय वे शुद्धता बनाए नहीं रख सकतीं।
सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश दिए जाने को लेकर लंबे समय से मांग उठती रही है, जिसका मंदिर प्रबंधन लगातार विरोध करता रहा है। प्रवेश को लेकर मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली 5 सदस्यीय बेंच ने अगस्त में पूरी सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रखा लिया था। इस मामले में 7 नवंबर, 2016 को केरल सरकार ने कोर्ट को सूचित किया था कि वह ऐतिहासिक सबरीमाला मंदिर में सभी आयु वर्ग की महिलाओं के प्रवेश के पक्ष में है।
शुरुआत में राज्य की तत्कालीन एलडीएफ सरकार ने 2007 में प्रगतिशील रूख अपनाते हुए मंदिर में महिलाओं के प्रवेश की हिमायत की थी जिसे कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूडीएफ सरकार ने बदल दिया था। यूडीएफ सरकार का कहना था कि वह 10 से 50 आयु वर्ग की महिलाओं का प्रवेश वर्जित करने के पक्ष में है क्योंकि यह परपंरा अति प्राचीन काल से चली आ रही है। बाद में केरल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखते हुए एक बार फिर मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर सहमति जताई।
2015 में केरल सरकार ने महिलाओं के प्रवेश का समर्थन किया था, लेकिन 2017 में उसने अपना रुख बदल दिया था। जिसके बाद अब फिर उसने प्रवेश देने पर सहमति जताई। जुलाई में सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश संबंधी जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान त्रावणकोर देवासम बोर्ड की तरफ से दलील दी गई थी कि जब मस्जिदों में भी महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी है।
वहीं सबरीमाला सेवक संघ की तरफ से वकील कैलाशनाथ पिल्लई ने कोर्ट से आग्रह किया कि धार्मिक मसले को सिर्फ कानून की नज़र से न देखें। मंदिर के रीति-रिवाज संविधान बनने से पहले के हैं। उन्हें खारिज करना इस तरह के सारे धार्मिक नियमों पर असर डालेगा। इससे सामाजिक सौहार्द पर बुरा असर पड़ेगा।
भीमा-कोरेगांव हिंसा मामले सुप्रीम कोर्ट का फैसला
भीमा-कोरेगांव हिंसा मामले में प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने 20 सितंबर को दोनों पक्षों के वकीलों की दलील सुनने के बाद फैसला सुरक्षित रखा था। इस दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी, हरीश साल्वे और अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने अपनी-अपनी दलीलें रखीं।
पीठ ने महाराष्ट्र पुलिस को मामले में चल रही जांच से संबंधित अपनी केस डायरी पेश करने के लिए कहा। पांचों कार्यकर्ता वरवरा राव, अरुण फरेरा, वरनॉन गोंजाल्विस, सुधा भारद्वाज और गौतम नवलखा 29 अगस्त से अपने-अपने घरों में नजरबंद हैं। पिछले साल 31 दिसंबर को 'एल्गार परिषद' के सम्मेलन के बाद राज्य के भीमा- कोरेगांव में हिंसा की घटना के बाद दर्ज एक एफआईआर के संबंध में महाराष्ट्र पुलिस ने इन्हें 28 अगस्त को गिरफ्तार किया था।
सुप्रीम कोर्ट ने 19 सितंबर को कहा था कि वह मामले पर पैनी नजर बनाए रखेगा क्योंकि सिर्फ अनुमान के आधार पर आजादी की बलि नहीं चढ़ाई जा सकती है। वरिष्ठ अधिवक्ता आनंद ग्रोवर, अश्विनी कुमार और वकील प्रशांत भूषण ने आरोप लगाया कि समूचा मामला मनगढ़ंत है और पांचों कार्यकर्ताओं की आजादी के संरक्षण के लिये पर्याप्त सुरक्षा दी जानी चाहिए। वहीं, पुलिस का दावा है कि कार्यकर्ता नक्सलियों की मदद कर रहे थे और उसने पुख्ता सबूतों के आधार पर गिरफ्तारी की है।