इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तरप्रदेश सूचना आयोग को सरकारी अधिकारियों को ‘‘अनावश्यक रूप से’’ समन करने के लिए फटकार लगाते हुए कहा है कि इससे सार्वजनिक कामकाज प्रभावित होता है। न्यायमूर्ति मुनिश्वर नाथ भंडारी और न्यायमूर्ति आलोक माथुर की पीठ ने कहा कि आयोग का काम है कि शुरुआती चरण में उपयुक्त नोटिस जारी करे कि क्या अधिकारी की व्यक्तिगत तौर पर उपस्थिति जरूरी है अथवा नहीं।
उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ पुलिस अधीक्षक संजय सिंह की याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिन्होंने सूचना मुहैया कराए जाने के बावजूद आयोग द्वारा 25 हजार रुपये का जुर्माना लगाने के आदेश को चुनौती दी थी। वकील शुभम गुप्ता और विनीत जायसवाल की तरफ से दायर याचिका के मुताबिक जुर्माना महज इस आधार पर लगाया गया कि जन सूचना अधिकारी (एसपी) सूचना आयुक्त के समक्ष पेश नहीं हुए।
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वकील अमूल मणि त्रिपाठी ने कहा कि उत्तरप्रदेश सूचना आयोग ने इस बात को संज्ञान में नहीं लिया कि एक अन्य अधिकारी ने उसके समक्ष पेश होकर जानकारी दी कि आवश्यक सूचना दी जा चुकी है और दस्तावेज रिकॉर्ड में है। उच्च न्यायालय ने कहा, ‘‘आयोग द्वारा अधिकारियों को अनावश्यक बुलाने की प्रथा का हम विरोध करते हैं क्योंकि इससे सार्वजनिक कार्यों पर असर पड़ता है।
उनका काम शुरुआती चरण में एक उपयुक्त नोटिस जारी करना है कि क्या अधिकारी को व्यक्तिगत तौर पर उपस्थित होने की जरूरत है अथवा नहीं। देखा गया है कि नोटिस जारी करते समय कॉलम में न तो चिह्न लगाया जाता है न ही उसे हटाया जाता है।’’ इसने कहा कि आयोग को जुर्माना लगाने से पहले आरटीआई कानून 2005 की धारा 20 का ध्यान रखना चाहिए।
उच्च न्यायालय ने कहा कि उसने प्रतिवादियों पर जुर्माना लगाया होता लेकिन अधिकारी सेवानिवृत्त हो गए हैं इसलिए ‘‘हम जुर्माना नहीं लगा रहे हैं बल्कि सूचना आयोग को निर्देश दे रहे हैं कि इस आदेश में दिए गए निर्देश और टिप्पणी का पालन करें ताकि भविष्य में इस तरह के आदेश पारित नहीं किए जा सकें। अन्यथा इससे मुकदमों में बढ़ोतरी होगी जिन्हें टाला जा सकता है।’’