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अयोध्या मामला : सूर्य की पूजा करने मात्र से उस पर किसी का हक तो नहीं हो जाता – सुन्नी वक्फ बोर्ड

उच्चतम न्यायालय में अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद जमीन विवाद की आज 23वें दिन की सुनवाई के दौरान पूजा करने के आधार पर विवादित स्थल पर हिन्दू पक्ष के मालिकाना हक के दावे का विरोध करते हुए कहा कि यदि कोई सूर्य की पूजा करता है

उच्चतम न्यायालय में अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद जमीन विवाद की आज 23वें दिन की सुनवाई के दौरान पूजा करने के आधार पर विवादित स्थल पर हिन्दू पक्ष के मालिकाना हक के दावे का विरोध करते हुए कहा कि यदि कोई सूर्य की पूजा करता है तो इससे उसका अधिकार सूर्य पर नहीं हो जाता। 
एक छोटे ब्रेक के बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील राजीव धवन ने जिरह को आगे बढ़ते हुए मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर की संविधान पीठ के समक्ष कहा कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि निर्मोही अखाड़ वहां प्राचीनकाल से मौजूद है। 
श्री धवन ने कहा कि लोगों का विश्वास है कि 11 हत्रार साल पहले उस जगह पर भगवान राम का जन्म हुआ था, लेकिन विवादित जमीन को श्रीराम जन्मभूमि पहली बार 1989 में कहा गया। उसी साल पहली बार कहा गया कि जन्म स्थान न्यायिक व्यक्ति है। इससे पहले कभी ऐसा दावा नहीं किया गया। 
उन्होंने आगे कहा कि रामलला विराजमान की ओर से दलील दी गयी थी कि हिंदू नदियों, पहाड़ को पूजते आये हैं, इसी तर्ज पर रामजन्म स्थान भी वंदनीय है। उन्होंने कहा, ‘‘मेरा कहना है कि यह एक वैदिक अभ्यास है। हिन्दू सूरज की पूजा करते हैं, पर इससे उस पर उनका मालिकाना हक़ तो नहीं हो जाता।’’
इससे पहले जिस वक्त श्री धवन छोटे से ब्रेक पर थे, तब सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से वकील जफरयाब जिलानी ने संविधान पीठ के समक्ष यह साबित करने की कोशिश कि विवादित स्थल पर बाबरी मस्जिद थी। उन्होंने इसके लिए संविधान पीठ के सामने कुछ दस्तावेजों का संदर्भ पेश किया। 
श्री जिलानी ने पीडब्ल्यूडी की उस रिपोर्ट का हवाला भी दिया, जिसमें कहा गया है कि 1934 के सांप्रदायिक दंगों में मस्जिद के एक हिस्से को कथित रूप से क्षतिग्रस्त किया गया था और पीडब्ल्यूडी ने उसकी मरम्मत कराई थी। उन्होंने कहा कि साल 1934 से 1949 के बीच विवादित स्थल पर नियमित नमाज होती थी। इसके पक्ष में भी उन्होंने दस्तावेज भी पेश किये। उन्होंने कहा कि साल 1934 के सांप्रदायिक दंगों में वहां भवन क्षतिग्रस्त हुआ था। 
उन्होंने बाबरी मस्जिद में 1945-46 में तरावीह की नामत्र पढ़ने वाले हाफ़त्रि के बयान का त्रक्रि किया। उन्होंने एक गवाह का बयान पढ़ते हुए कहा कि उसने 1939 में मगरिब की नमात्र बाबरी मस्जिद में पढ़ थी, जबकि हिन्दू पक्ष की तरफ से जिरह के दौरान यह दलील दी गई थी कि 1934 के बाद विवादित स्थल पर नामत्र नही पढ़ गई। 
श्री जिलानी ने कहा कि वर्ष 1943 में अयोध्या में हुए दंगे के कुछ महीने बाद मस्जिद में दोबारा नमाज पढ़ने की इजात्रत दे दी गई थी, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि वहां नमाज नहीं पढ़ गई। 

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