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चीन की शातिराना हरकतें!

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दो माह पूर्व जब 13 मई को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने श्रीलंका की यात्रा की थी तो चीन ने हिन्द महासागर में अपनी एक पनडुब्बी उतार कर उसके कोलम्बो बन्दरगाह पर लंगर डालने की इजाजत मांगी थी जिसे वहां की सरकार ने नामंजूर कर दिया था। चीन ने ‘समुद्री सिल्क रूट’ के नाम पर यह कार्रवाई की थी। अत: चीन के इरादों को समझने में भारत को भूल नहीं करनी चाहिए। उसकी विस्तारवादी आदत भारत को चारों तरफ से घेरने की फिराक में है। इसके बाद एक जून को उसने भारत-भूटान व चीन की तिहरी सीमा पर स्थित ‘डोकलम पठार’ के क्षेत्र में भारतीय सेना के उन दो बंकरों को हटाने का अभियान छेड़ा जो 2012 से वहां स्थित थे। इन बंकरों को चीनी सेना के बुल्डोजरों ने जमींदोज कर डाला और भारत से इस क्षेत्र से हटने को कहा। भारत के विरोध करने पर इसने अपनी फौजों का जमावड़ा बढ़ाना शुरू कर दिया और अब स्थिति यह आ गई है कि दोनों देशों की फौजों की संख्या में अच्छी-खासी वृद्धि हो चुकी है। इसके साथ ही इसने हिन्द महासागर में सात पनडुब्बियां उतार दी हैं। जाहिर तौर पर चीन अपनी सामरिक ताकत से भारत को डराना चाहता है और युद्ध का वातावरण तैयार करना चाहता है मगर वह हठधर्मिता का परिचय दे रहा है क्योंकि जिस डोकलम पठार को वह अपने नियंत्रण वाली चुम्बी घाटी का मान रहा है उस पर पिछले कई दशकों से भूटान का कब्जा है।

इस छोटे से पहाड़ी देश को चीन किसी भी कीमत पर अपनी धौंस में लाकर अपनी शर्तों पर नहीं झुका सकता है। यही वजह रही कि हमारे रक्षामंत्री श्री अरुण जेतली ने कहा कि ‘यह 2017 का भारत है, 1962 का नहीं’ मगर चीन इसका जवाब दे रहा है कि वह भी 1962 से बदला हुआ चीन है। जाहिर है कि चीन कूटनीतिक समस्या का हल फौजी कार्रवाई से करना चाहता है। अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के तहत चीन को डोकलम पठार का मामला केवल बातचीत के जरिये ही सुलझाना होगा क्योंकि इस मुद्दे पर भूटान व चीन के बीच 1984 से बातचीत के दौर पर दौर चल रहे हैं। चीन जानता है कि भारत व उसके बीच सीमा रेखा का सवाल अनसुलझा हुआ है क्योंकि उसने 1914 में खिंची उस ‘मैकमोहन रेखा’ को कभी स्वीकार नहीं किया जो उसके और हमारे बीच में तिब्बत को एक स्वतंत्र देश मानकर खींची गई थी। वह ब्रिटिश राज था और चीन व भारत दोनों ही दासता में जकड़े हुए थे मगर आज परिस्थितियां बदली हुई हैं। दोनों ही देश स्वतंत्र हैं और खुद मुख्तार हैं अत: दोनों को ही अपने सभी विवाद बिना फौजों का इस्तेमाल किए सुलझाने चाहिएं परन्तु चीन ने भारत की पीठ में छुरा घोंपते हुए 1962 में हम पर हमला किया और हमारी गैरत को ललकारने की हिकामत की।

इसलिए यह ध्यान दिलाया जाना बहुत जरूरी है कि हम 1962 के भारत नहीं हैं मगर चीन दक्षिण एशिया में अपनी दादागिरी स्थापित करने के लिए पाकिस्तान को अपने साथ रखकर भारत को किसी तरह नहीं डरा सकता। वह जानता है कि हिन्द महासागर व प्रशान्त सागर में भारत, अमरीका, जापान व आस्ट्रेलिया का साझा नौसैनिक अभ्यास हवा में गांठें मारने के लिए ही नहीं किया जा रहा है बल्कि यह चीन को चेतावनी है कि वह इस क्षेत्र को युद्ध का अखाड़ा बनाने से बाज आए। उसकी अमरीका से लागडांट के चलते ‘एशिया-प्रशांत’ क्षेत्र को ‘अशांत’ नहीं बनाया जा सकता और इसके लिए वह भूटान के रास्ते भारत पर दबाव नहीं बना सकता मगर मैं पहले भी लिख चुका हूं कि यह भारत की कूटनीति के लिए अग्नि परीक्षा का समय भी हो सकता है क्योंकि हमें चीन को उसके फौजी इरादों से रोकना है और इसका जवाब हमें भारत की उस पुरानी गुटनिरपेक्ष नीति के नियामक सिद्धांतों से मिलेगा जिसमें सभी छोटे व विकासशील देशों की संप्रभुता की गारंटी निहित थी।

गुटनिरपेक्ष देशों के सम्मेलन के मंच से ही कभी इंदिरा गांधी ने यह आवाज उठाई थी कि हिन्द महासागर क्षेत्र को ‘अंतर्राष्ट्रीय शांति क्षेत्र’ घोषित किया जाए क्योंकि 1967 में जिस प्रकार चीन ने भूटान के रास्ते ही भारत से फौजी झड़पें की थीं उससे उसके भविष्य के इरादों का अंदाजा लगता था मगर तब पाकिस्तान को अमरीका ने अपने कंधे पर बिठाया हुआ था। अत: यह समझा जाना भी बहुत जरूरी है कि दक्षिण एशिया में पाकिस्तान अकेला ऐसा देश है जो शांति के मार्ग में बाधा बनकर सबसे पहले आकर खड़ा हो जाता है। आजकल चीन ने इसे अपने कंधे पर बिठाया हुआ है। इतना ही नहीं इसने ईरान से लगे ग्वादर बंदरगाह को चीन के हवाले किया हुआ है। दो माह पहले जब श्रीलंका ने चीनी पनडुब्बी को कोलम्बो बन्दरगाह पर लंगर डालने की इजाजत नहीं दी थी तो वह कराची बन्दरगाह की तरफ बढ़ गई थी। अत: चीन के इरादों को हमें समझना होगा और उसकी शातिराना हरकतों पर लगाम लगानी होगी।

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