भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति में अपराधीकरण काफी लम्बे समय से चिन्ता का विषय रहा है। लोकतंत्र में चुनावी मैदान में उतरने और वोट देने का अधिकार नागरिकों को हासिल है। इन अधिकारों में सबको समान अवसर मिले, की भावना निहित है। भारतीयों ने देखा है कि कई लोगों ने जेल में सलाखों के पीछे रहकर भी चुनाव लड़ा, किसी ने सजा काटकर भी चुनाव लड़ा। किसी पर गंभीर आपराधिक आरोप भी हैं तो भी वह निगम पार्षद, विधायक और संसद सदस्य बन गया। राजनीति में अपराधीकरण का मामला कोई नया नहीं है। इसके बीज आखिर कहां रोपे गए, यह भी सब जानते हैं। एक प्रश्न यहां बड़ा प्रासंगिक है कि आखिर अपराधी राजनीति में क्यों आ गए या क्यों आना चाहते हैं? दुनिया का कोई और पेशा, तो उन्हें आकर्षित नहीं कर सका? अपराधियों की यह इच्छा तो कभी नहीं होती कि वे कम्प्यूटर सीखें, इंजीनियर बनें, डाक्टर बनें, केवल राजनीति की ओर ही वे क्यों दौड़ते हैं? दरअसल यहां किसी शैक्षणिक योग्यता की कोई जरूरत ही नहीं है।
हुआ यह है कि राजनीतिज्ञों ने पहले चुनाव जीतने के लिए दागियों, अपराधियों, बदमाशों का सहारा लिया। इन लोगों को लगा कि जब राजनीतिज्ञ हमारे सहारे चुनाव जीत रहे हैं तो हम खुद क्यों न नेता बन जाएं तो ऐसे लोग बन गए नेताजी। अपराधियों को आमंत्रण देना, राजनीति में उनके लिए ग्लैमर पैदा करना, ये सारे काम भी तो सियासत ने खुद ही किए हैं। तभी तो भारत के लोग प्रजातंत्र का वीभत्स स्खलन यानी गिरावट देखने को बाध्य हुए। सब अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग अलापते रहे। देश के कर्णधारों पर आयकर, प्रवर्तन निदेशालय ने जब छापेमारी की तो अरबों की बेनामी सम्पत्तियां सामने आ रही हैं। जनप्रतिनिधि गूंगे और बहरे बने रहे और राष्ट्रविरोधी गतिविधियां परवान चढ़ती रही। चुनाव सुधार के सम्बन्ध में जितनी भी बातें उड़ाई जाती रहीं, उनमें चयनित उम्मीदवारों के आपराधिक रिकार्ड का मुद्दा भी उठाया जाता रहा। पिछले तीन दशकों में भ्रष्ट राजनीतिज्ञों, अपराधियों आैर भ्रष्ट नौकरशाहों से सांठगांठ ऐसे हुई कि देश में एक के बाद एक घोटाला हुआ। उनका जिक्र करूं तो महाग्रंथ की रचना हो सकती है।
10 मार्च 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि चुनावों के उम्मीदवारों को अपराधी ठहराए जाने के बाद उन्हें अयोग्य घोषित किया जाए या केवल चार्जशीट दाखिल होने के आधार पर अपराधी माना जाए, इसे लम्बी बहस के लिए टाल दिया गया था। तत्कालीन जस्टिस आर.एस. लोढा ने भारत की राजनीति को स्वच्छ बनाने के लिए मशाल जलाई थी जो अब जाकर सार्थक होती नजर आ रही है। अब इस सवाल पर आगे बढ़ते हुए न्यायाधीश गोगोई और सिन्हा ने गत एक नवम्बर को फिर यह मुद्दा उठाया। उन्होंने यह बताए जाने की मांग की थी कि सांसदों एवं विधायकों के आपराधिक पृष्ठभूमि के 1581 मामलों में से कितने एक वर्ष में निपटाए गए हैं और इनमें से कितनों को सजा हुई है। केंद्र सरकार ने आपराधिक गतिविधियों में लिप्तता के आरोपों का सामना कर रहे जनप्रतिनिधियों के मामलों का निपटारा करने के लिए विशेष अदालतें गठित करने का प्रस्ताव सुप्रीम कोर्ट में पेश किया, उसे अब सुप्रीम कोर्ट ने मंजूरी दे दी है। केंद्र सरकार 12 विशेष अदालतें बनाने जा रही है। इनके काम शुरू करने की डेडलाइन एक मार्च 2018 तय की गई है। सुप्रीम कोर्ट ने ही केंद्र को मामलों की जल्द सुनवाई के लिए विशेष अदालतें बनाने का आदेश दिया था। 12 विशेष अदालतों में दो अदालतें 228 सांसदों के खिलाफ मामलों की सुनवाई करेगी जबकि 10 अदालतें उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, तेलंगाना आैर प. बंगाल में होंगी।
ऐसा देखा गया है कि ट्रायल के दौरान राजनीतिज्ञ अंतरिम आदेश का सहारा लेकर बार-बार ट्रायल में अवरोध पैदा करते हैं। मुकद्दमा चलता रहता है और वे 5 साल सत्ता में बने रहते हैं। फिलहाल सजायाफ्ता लोगों के जेल से छूटने के बाद 6 वर्ष तक चुनाव लड़ने की अयोग्यता है। लालू प्रसाद यादव आैर कुछ अन्य भी इसी कानून का शिकार हुए हैं। राजनीति को साफ-सुथरा बनाने के लिए सख्त कदम उठाने जरूरी हैं लेकिन यह भी देखना होगा कि कहीं उससे नगरिक अधिकारों का उल्लंघन तो नहीं हो रहा। हत्या, दंगे, बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के दोषियों को बेशक राजनीतिज्ञ बनने से रोका जाना चाहिए लेकिन कई बार राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता या साजिशन किसी को अपराध में फंसा दिया जाता है। बहुत से सवाल अभी भी अनुत्तरित हैं। क्या विशेष अदालतों का फैसला अंतिम होगा या इसमें भी सर्वोच्च अदालत में जाने का प्रावधान होगा। ऐसा भी देखा गया है कि निचली अदालतें किसी को दोषी करार देकर सजा देती हैं लेकिन आरोपी सुप्रीम कोर्ट में बरी हाे जाता है। राजनीतिक दलों को भी चाहिए कि वह आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं से किनारा करें। सियासत में स्वच्छता अभियान चलाया जाना चाहिए। उम्मीद है कि विशेष अदालतें सियासत को स्वच्छ बनाने में बड़ी भूमिका निभाएंगी।