गुजरात विधानसभा चुनाव के अन्तिम चरण के मतदान की पूर्व संध्या पर राजनीतिक युद्ध छिड़ना किसी भी तौर पर उचित नहीं कहा जा सकता है। चुनाव प्रचार बन्द हो जाने पर इस प्रकार का विवाद लोकतन्त्र को किसी भी तरह मजबूत नहीं बनाता है बल्कि इससे राजनीतिक दलों की बदहवासी का ही पता चलता है। यह बदहवासी आम जनता द्वारा अपने एक वोट के महान अधिकार के प्रयोग करने से पहले जिस तरह बाहर आ रही है उसका एक ही अर्थ निकाला जा सकता है कि राजनीतिक दलों को मतदाताओं की अक्ल पर भरोसा नहीं है। यह भारत के मतदाता ही हैं जो मतदान के माध्यम से दूध का दूध और पानी का पानी करके राजनीतिक दलों के सामने आइना रखकर उसमें उनकी शक्ल दिखा देते हैं। लोकतन्त्र में जनता की अदालत से बड़ी अदालत कोई दूसरी नहीं होती क्योंकि इसमें स्वयं जनता ही न्यायाधीश की भूमिका निभाकर अपनी मनपसन्द के नौकरों का चयन करती है।
राजनीतिक दलों को उसके द्वारा दिये गये न्याय को सिर झुकाकर मानना ही होता है। इसके साथ ही चुनाव प्रचार बन्द होने पर विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं के बीच किसी प्रकार की कोई रंजिश नहीं रहती। चुनाव व्यक्तिगत दुश्मनी के आधार पर नहीं बल्कि नीतिगत भेद के आधार पर लड़े जाते हैं क्योंकि प्रत्येक राजनीतिक दल अपनी नीतियों के अनुसार ही जनता की सेवा करने की कसम उठाता है। लोकतन्त्र में जो भी चुना जाता है वह जनता का प्रतिनिधि ही कहलाता है। अतः इनकी निजी शत्रुता होने का सवाल ही पैदा नहीं होता क्योंकि सभी जनप्रतिनिधि जनता के हित की लड़ाई लड़ने की शपथ से ही बन्धे होते हैं। राजनीति में व्यक्तिगत दुश्मनी रखने का मतलब सीधे तौर पर लोकतन्त्र को नकारने से ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता है। मतदान के एक दिन पहले कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष श्री राहुल गांधी द्वारा दिये गये टेलीविजन साक्षात्कार को भाजपा मुद्दा बना रही है तो कांग्रेस प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी द्वारा फिक्की की सभा में दिये गये भाषण को भी इसी श्रेणी में रख रही है। शिकायत चुनाव आयोग से की जा रही है और कहा जा रहा है कि राहुल का साक्षात्कार आदर्श चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन है। तथ्य यह है कि राहुल गांधी कांग्रेस के नये अध्यक्ष चुने गये हैं और उन्होंने यह साक्षात्कार कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से कुछ इलैक्ट्रानिक पत्रकारों को दिया।
श्री नरेन्द्र मोदी की फिक्की के सदस्यों को सम्बोधित करने की सभा पहले से ही तय थी अतः उन्होंने उनके बीच जाकर अपना भाषण दे दिया। राहुल गांधी से जो सवाल पत्रकारों ने पूछे उनका उन्होंने अपने हिसाब से अपनी पार्टी की नीतियों के अनुसार उत्तर दे दिया। इसमें गुजरात के चुनावी माहौल के बारे में भी सवाल पूछे गये अतः उनका उत्तर दिया जाना स्वाभाविक ही था। विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष होने के नाते उन्होंने अपनी विरोधी पार्टी की सरकार की खामियों की तरफ इशारा किया और अपने बारे में पूछे सवालों के जवाब में अपनी सफाई पेश की। दूसरी तरफ श्री मोदी ने फिक्की की सभा में जाकर अपनी सरकार की नीतियों के बारे में खुलासा किया और पिछली सरकार की नीतियों को आड़े हाथों लिया। प्रधानमन्त्री ने जन-धन योजना से लेकर उज्ज्वला ईंधन गैस व मुद्रा बैंक योजना की सफलता का ब्यौरा दिया। लगे हाथ उन्होंने बैंकों के बट्टा खाते में गये धन का भी जिक्र कर डाला और इसके लिए पिछली मनमोहन सरकार को जिम्मेदार बताया।
निश्चित रूप से दोनों के बयान ही राजनीति से भरे हुए कहे जा सकते हैं और समझा जा सकता है कि दोनों नेताओं के दिमाग में ही कहीं न कहीं गुजरात चुनावों का ख्याल रहा होगा। यह बहुत स्वाभाविक बात है, परन्तु दोनों ने ही गुजरात में समाप्त हुए चुनाव प्रचार की सीमा रेखा को कहीं तोड़ने की कोशिश नहीं की बेशक परोक्ष रूप से उनके दिमाग में गुजरात ही छाया रहा हो। चुनाव आयोग किसी भी नियम के तहत न तो राहुल गांधी को कांग्रेस का नया अध्यक्ष बनने पर मीडिया को साक्षात्कार देने से रोक सकता है और न ही प्रधानमन्त्री को फिक्की की सभा में पूरी तरह गैर-राजनीतिक बयान देने के लिए कह सकता है, परन्तु हकीकत यह है कि दोनों ही राजनीतिक प्राणी हैं और उनके किसी भी विमर्श से राजनीति को निकाला नहीं जा सकता है। भारत गांवों का देश है। इसके गांवों में एक कहावत है कि ‘हूंकने से ऊंठ न उठा करते’। चुनावी ऊंट भी जिस करवट बैठना होता है, बैठ कर ही रहता है। अतः बात-बात पर नुक्ताचीनी से लोगों के दिमाग बदलते नहीं हैं। भारत के मतदाताओं में इतनी अक्ल है कि वे उड़ती चिड़िया के पर गिनना जानते हैं। यदि एेसा न होता तो क्यों भारत का लोकतन्त्र इतना जीवन्त रह पाता।