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कांग्रेस का महासम्मेलन और देश

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इसमें किसी प्रकार की दो राय नहीं हो सकती कि आज भारत एेसे चौराहे पर आकर खड़ा हो गया है जहां राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय एकता के बीच ही द्वन्द्व-सा मचता दिखाई पड़ रहा है। यह स्थिति इसलिए बनी है कि हमने अपनी व्यक्तिगत पहचान को राजनीतिक सिद्धान्तों और विचार के आइने में देखने की भयंकर भूल कर डाली है। इस स्थिति से उबरने का जो रास्ता हमें महात्मा गांधी ने दिखाया था उसे भी हमने अपनी ‘तेजाबी जुबानों’ से तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। अतः सबसे पहले आवश्यक है कि हम अपने मिजाज को लोकतन्त्र की उस अवधारणा में ढालें जिसमें सत्ता पर काबिज लोग या राजनैतिक दल ‘सरकार’ बनाने के लिए नहीं बल्कि ‘देश’ बनाने के लिए राजनीति करते हैं। यह राजनीति सत्ता के अहंकार और पद के नशे को आम जनता के चरणों पर न्यौछावर करके देश के निर्माण में अपनी आहुति देती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू थे जिन्होंने अपने खिलाफ बहुत ही कमजोर विपक्ष को लोकतन्त्र की आवाज बनने का हर वह अवसर प्रदान किया जिससे खुद उनकी ही मुखालफत को मजबूती मिलती थी।

1962 में चीन से युद्ध हार जाने के बाद पं. नेहरू ने जनसंघ के सांसद अटल बिहारी वाजपेयी को उनकी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव मंजूर करने के तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष से तब कहा जबकि समूचे विपक्ष के पास इसे रखने के लिए पर्याप्त सदस्य संख्या तक नहीं थी। पं. नेहरू यह पूरे देश को बताना चाहते थे कि उनसे भी गलती हो सकती है। इस महान व्यक्तित्व और दूरदृष्टा भारत निर्माता पं. नेहरू की विरासत संभालने वाली कांग्रेस पार्टी का दो दिवसीय महासम्मेलन आजकल राजधानी में श्री राहुल गांधी के नेतृत्व में चल रहा है। यह निर्विवाद है कि कांग्रेस पार्टी का पुनर्जागरण और पुनरुत्थान केवल नेहरू की ही उस वैज्ञानिक व समावेशी दृष्टि को अपनाने से हो सकता है जिसमें भारतीय मिट्टी का आेज हर स्तर पर आवाज लगाता था। यदि एेसा न होता तो पं. नेहरू 1963 के अन्त में तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री पद पर बैठे स्व. कामराज नाडार को कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष न बनाते। इसकी एक ही वजह थी कि कामराज भारत के गरीब, मजदूर और गांवों की ताकत का एेसा समुच्य थे जिनके पास कोई बड़ी डिग्री नहीं थी मगर मुल्क में चलती हवाओं का रुख देखकर ही बता सकते थे कि भारत के विकास के लिए कौन-सा मार्ग खुलेगा।

स्वतन्त्र भारत में उत्तर से लेकर दक्षिण तक भारत की एकात्मता में पं. नेहरू ने कांग्रेस पार्टी को जिस तरह बांधा उसकी दूसरी मिसाल मिलना कठिन है क्योंकि उनके ही दौर में खुद उनके ही अत्यन्त निकट रहे स्व. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी अपनी अलग स्वतन्त्र पार्टी बनाकर कांग्रेस को चुनौती दे रहे थे लेकिन यह मानना भूल होगी कि लोकसभा में केवल 44 सांसद लाने में समर्थ होने वाली कांग्रेस पार्टी का विचार और जनाधार चुक गया है। यदि निरपेक्ष भाव से देखा जाए तो कांग्रेस भारत की एेसी एकमात्र पार्टी है जिसका मूल विचार हर भारतवासी को कहीं न कहीं भीतर से आन्दोलित करता रहता है। यह विचार भारत की वैविध्यपूर्ण एकता का है। यह विचार राजनीति को मानवीय रूप देने का है, यह विचार सामाजिक न्याय को संविधान की शक्ति से अधिकृत करने का है। बेशक कालान्तर में कांग्रेस पार्टी अपनी राह से भटकी है और तात्कालिक भावातिरेक मंे इसने कई गंभीरतम गलतियां भी की हैं मगर यह भी सत्य है कि भारत के लोगों ने इसके पिछले गौरवपूर्ण अतीत को देखते हुए इस पर पुनः विश्वास भी किया है। इसका सबसे बहा उदाहरण श्रीमती सोनिया गांधी के नेतृत्व में चली कांग्रेस पार्टी है। जिनके राजनीति में कोरा होने के बावजूद 1998 से इस पार्टी की कमान संभाल कर इसे पुनः 2004 में सत्ता पर बिठाया और 2009 में पुनः इसमें अभिवृद्धि की। यह किसी परिवार का नहीं बल्कि कांग्रेस पार्टी का मूल विचार था जिससे लोग आन्दोलित हुए थे।

बेशक नेहरू, इंदिरा परिवार के जलवे का इस पर मजबूत साया था। अतः आज जो लोग श्री राहुल गांधी के नेतृत्व को हल्के में लेने की कोशिश कर रहे हैं वे गुजरात के चुनाव परिणामों से मुंह मोड़ रहे हैं। यह नहीं भूला जाना चाहिए कि भारत के हर राज्य में कांग्रेस और नेहरू परिवार कोई अजनबी नहीं है बल्कि उसकी प्रतिष्ठा लाख आरोपों के बावजूद देश की नई पीढ़ी तक में आदर और सम्मान पाती है। इसलिए इस पार्टी का चल रहा दो दिवसीय सम्मेलन भारत की राजनीति की कोई छोटी घटना नहीं कही जा सकती। आम भारतीय के लिए विकल्प के रूप में कांग्रेस के स्थान को समाप्त करना तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक कि स्वयं कांग्रेस पार्टी ही इसके लिए तैयार न हो। अतः यह बेसबब नहीं है कि पार्टी ने अपने राजनीतिक प्रस्ताव में चुनावों में पुनः बैलेट पेपर का प्रयोग किये जाने की मांग की है। इसका मन्तव्य यह निकलता है कि भारत के चुनाव आयोग की विश्वसनीयता में कहीं सन्देह प्रकट किया जा रहा है। इसके कुछ ठोस कारण भी हो सकते हैं मगर इनका निवारण चुनाव आयोग केवल टैक्नोलोजी के प्रयोग की दुहाई देकर नहीं कर सकता। उसे अपने सम्पूर्ण आचरण से देशवासियों को आश्वस्त करना होगा कि वह पूरी तरह स्वतन्त्र संवैधानिक संस्था है। यह साधारण बात नहीं है कि विपक्षी दल बैलेट पेपर से चुनाव कराने की मांग कर रहे हैं। असल में वे यह मांग कर रहे हैं कि लोकतन्त्र की शुचिता और पवित्रता पर किसी भी प्रकार की आंच न आने दो। यदि चुनाव प्रणाली ही शक के घेरे में आ जाती है तो इसके आधार पर चुने गये सदनों की पवित्रता पर सीधा सवाल खड़ा हो सकता है। अतः मामला बहुत गंभीर है।

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