इसमें कोई शक नहीं कि जब लोकतंत्र की बात चले तो राष्ट्रपति चुनाव की चर्चा न हो। दरअसल राष्ट्रपति का चुनाव भारत जैसे देश में बहुत अहमियत रखता है। अगर लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियां साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति के तहत एक-एक वोट का हिसाब-किताब रखते हैं तो यही वोट तंत्र आगे भी काम करता है। डाक्टर राजेंद्र प्रसाद जो कि स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति थे, से लेकर प्रणव दा तक इस सर्वोच्च और प्रतिष्ठित पद पर नैतिकता और जिम्मेवारी का तकाजा पूरी ईमानदारी से निभाया जाता रहा है। बीच-बीच में जब राजनीतिक वोट तंत्र राष्ट्रपति चुनावों में आजमाया जाता है तो फिर कई बातें उभरती हैं जिनमें से जाति कार्ड का उल्लेख हमारे यहां ज्यादा चल रहा है। श्री रामनाथ कोविंद जो कि एनडीए के प्रत्याशी है और मीरा कुमार जो यूपीए की प्रत्याशी हैं, को लेकर जिस तरह से पार्टियां जाति-पाति को लेकर या फिर दलित की बात कहकर प्रचार कर रही हैं तो इतने बड़े स्तर पर ऐसा नहीं किया जाना चाहिए बल्कि इस सर्वोच्च पद पर हो रहे चुनाव का सम्मान किया जाना चाहिए।
राष्ट्रपति तो पूरे देश का बनना है। वह किसी भी पार्टी विशेष से नहीं होता बल्कि उसका पैमाना तो राष्ट्रहित होना चाहिए और होता भी है। हमारे संविधान के निर्माता डा. अंबेडकर ने राष्ट्रपति को सर्वाधिक शक्तिशाली बताया है। एक राष्ट्रपति का व्यक्तित्व, उनके विचार, उनकी कार्यशैली एक महान देश का प्रतिबिंब अपने आप में दिखाते हैं। जिस लोकतंत्र पर हम सबसे ज्यादा नाज करते हैं उससे जुड़ी शक्तियां राष्ट्रपति के हाथ में होती हैं और राष्ट्रपति संसद भंग करवा सकता है, पीएम को बर्खास्त कर सकता है और वह सेना का प्रमुख कमांडर भी बन सकता है। दुर्भाग्य से इस प्रतिष्ठिïत पद को पार्टियों ने अपनी सियासत के लिए इस्तेमाल किया है जिसमें उनकी योग्यता के मायने नहीं, सक्षमता के मायने नहीं बल्कि राजनीतिक दलों ने यह देखा है कि कोई प्रत्याशी उनके अपने आंकड़ों में, उनके अपने गणित में फिट कैसे होता है।
हमारे यहां राष्ट्रपति ने अपनी महान शक्तियों का इस्तेमाल कम ही किया है। अगर मौजूदा परिस्थितियों पर फोकस करें तो ज्यादा अच्छा है। मोदी सरकार देश में सुशासन की नींव रख रही है और जब उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए अपना प्रत्याशी मैदान में उतारा तो कांग्रेस की ओर से विपक्ष की बागडोर संभालकर एक ऐसा ही चेहरा मुकाबले में उतारने की कोशिश शुरू हो गई जो रामनाथ कोविंद जैसे फ्रेम में फिट हो सके। दलित कार्ड के नाम पर राष्ट्रपति चुनावों में वोटतंत्र नहीं स्थापित होना चाहिए। अगर के.आर. नारायणन हमारे देश के राष्ट्रपति रहे हैं तो हमें याद रखना होगा कि वह केरल की झोपड़ी में रहा करते थे। अगर रायसीना हिल्स की तुलना में व्हाइट हाऊस की बात करें तो अब्राहम लिंकन एक शू-मेकर के बेटे थे। जीवन में आप कोई भी पेशा रख सकते हैं। (यहां हम प्रधानमंत्री मोदी का भी उल्लेख करना चाहेंगे जो चाय बेचते रहे हैं ) लेकिन अमरीका में कभी जाति कार्ड या फिर केंडीडेट्स को लेकर हाई प्रोफाइल या लो प्रोफाइल की बात नहीं की गई। यह हमारा भारत ही है कि जहां किसी केंडिडेट के मुकाबले में उतरने पर राजनीतिक कार्ड का जरूरत से ज्यादा उल्लेख करना शुरू कर दिया जाता है। हैरानगी उस वक्त होती है जब विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रवक्ता अपने-अपने पक्ष में इसे सही ठहराने का काम करते हैं।
संविधान निर्माताओं ने यद्यपि राष्टï्रपति चुनावों की जो व्यवस्था की है तो हमें यह जान लेना चाहिए कि सब कुछ जाति से नहीं जोड़ा जाना चाहिए।वोटों का अंक गणित इस देश में कभी कांग्रेस प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी जैसे प्रत्याशी को हार के द्वार पर ले जा सकता है और एक निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में वी.वी. गिरि उन्हें हराकर देश के राष्ट्रपति भी बन चुके हैं। हार-जीत एक अलग हिसाब-किताब है लेकिन बड़ी बात यह है कि देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री में बेहतर तालमेल होना चाहिए जो देश के उज्जवल भविष्य की तस्वीर प्रस्तुत करने वाला हो। सब जानते हैं कि वोटों के गणित में रामनाथ कोविंद अपने प्रतिद्वंदी पर भारी पड़ सकते हैं। अपना-अपना अंक गणित हर कोई बैठाता है लेकिन यह सब कुछ जाति के आधार पर नहीं होना चाहिए। हमारे यहां राष्ट्रपति का चुनाव देश के तीस राज्यों के विधायकों, लोकसभा सांसदों और राज्यसभा सदस्यों के वोटों के मूल्य को लेकर तय किया जाता है।
राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल में सभी सदस्यों का मूल्य और विजय के लिए वोटों का निर्धारण रहता है लेकिन हमारी यही कामना है कि यह सब कुछ जाति के आधार पर नहीं होना चाहिए। अपने-अपने तरीके से, अपनी-अपनी विचारधारा से अपनी पसंद का राष्ट्रपति चुनने का अधिकार सदस्यों को है। यह ठीक इसी तरह है जैसे लोकतंत्र में आम मतदाता अपनी पसंद का नेता विधानसभा या संसद के चुनावों में चुनता है। किसी प्रत्याशी को खास राज्य का बेटा या बेटी बताकर या जाति के आधार पर राजनीतिक कार्ड बताकर राष्ट्रपति भवन तक पहुंचने के लिए प्रचार इस स्तर पर नहीं होना चाहिए। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में राष्ट्रपति चुनाव का सम्मान न केवल जमीनी स्तर पर बल्कि विधानसभा और संसद स्तर पर भी किया जाना चाहिए।