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किसानों की हत्या पर ‘उपवास’

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मध्य प्रदेश में आन्दोलनरत किसान कोई सर्कस का खेल नहीं दिखा रहे हैं कि आम आदमी पार्टी की फौज मंदसौर में अपना तमाशा दिखाने पहुंच गई है। दिल्ली की जनता वह दिन अभी तक नहीं भूली है जब जन्तर-मन्तर पर एक पेड़ से लटक कर एक राजस्थान के एक किसान ने अपनी जान दी थी और इसी स्थान पर उसकी आत्महत्या का आंखों देखा हाल मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल सुना रहे थे। किसानों का आन्दोलन किसी भी तौर पर राजनीति चमकाने का जरिया नहीं बन सकता बल्कि यह सत्ता के मद में सोये हुए लोगों को जगाने का शंखनाद है। मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान कान खोल कर सुनें कि उनकी पुलिस ने जिन छह किसानों को गोलियों से भूना है उसका प्रायश्चित वह उपवास करके नहीं कर सकते और जनता को यह धोखा नहीं दे सकते कि उनके दरवाजे बातचीत के लिए खुले हुए हैं। जिस मुख्यमन्त्री ने पिछले कई महीनों से किसानों की जायज मांगों का संज्ञान तक लेने की फिक्र नहीं की उसका हृदय परिवर्तन यदि किसानों के बेमौत मारे जाने से होता है तो सबसे पहले उन्हें गद्दी छोड़कर किसानों से माफी मांगते हुए आत्म शुद्धि का रास्ता खोजना चाहिए। लोकतन्त्र में जब कोई आन्दोलन हिंसक रूप धारण करता है तो उसके मूल में कई मुख्य सवाल होते हैं।

1966 के दिसम्बर महीने में जब गौहत्या निषेध के मुद्दे पर साधु-सन्तों का आन्दोलन हिंसक हो गया था और पुलिस ने गोलियां चलाकर कई लोगों को काल का ग्रास बना दिया था तो तत्कालीन गृहमन्त्री गुलजारी लाल नन्दा को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था। साधू-संन्यासी अपने साथ हथियार लेकर नहीं आये थे। वे संसद घेर कर अपनी मांगें केन्द्र सरकार के समक्ष रखना चाहते थे। लोकतन्त्र में जब भी कोई आन्दोलन हिंसक रूप धारण करता है तो उसके पीछे कई प्रमुख कारण होते हैं। इनमें सबसे प्रमुख मांग का जायज होना और उसके पक्ष में जनमत का होना होता है। जनमत के आवरण में ही हिंसा को कुछ लोग आवेश में प्रभावी कर देते हैं। बेशक इनमें असामाजिक तत्वों का हाथ होता है मगर शिवराज सिंह को यह विचार करना चाहिए कि मध्य प्रदेश की शान्त धरती को किस तरह कुछ लोगों ने अशान्त बना डाला? इसमें किसानों को दोष देने की कुचेष्टा यदि कुछ लोग करते हैं तो वे भारत की जमीनी हकीकत से बेखबर हैं। मध्य प्रदेश की हकीकत यह है कि यहां प्रतिवर्ष कृषि क्षेत्र की विकास वृद्धि दर 12 प्रतिशत के लगभग होने के बावजूद किसानों की आमदनी में इजाफा नहीं हुआ है। यह सरासर नाइंसाफी है क्योंकि किसानों ने अपनी मेहनत से फसलों की उपज बढ़ाकर अपने राज्य की समृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान दिया है मगर बदले में शासन ने उसे क्या दिया?

यदि इस मुद्दे पर ही शिवराज सिंह गौर करते तो उन्हें आत्मग्लानि में उपवास पर बैठने की जरूरत नहीं पड़ती। सवाल न कांग्रेस का है और न भाजपा का बल्कि खेती को लाभप्रद बनाने का है जिससे किसानों के बेटे-बेटियां भी वे सब सुख-सुविधाएं प्राप्त कर सकें जो शहरों में रहने वाले किसी औसत आदमी के बच्चों को प्राप्त होती हैं। भारत में अभी तक सबसे बड़े किसान नेता स्व. चौधरी चरण सिंह हुए हैं और वह अपनी सार्वजनिक सभाओं में डंके की चोट पर कहा करते थे कि भारत तब तक गरीब मुल्क रहेगा जब तक यहां ज्यादातर लोग खेती-किसानी में लगे रहेंगे। किसानों की हालत तभी सुधरेगी जब उसके खेत की पैदावार बढ़ेगी और एक परिवार की जोत की जमीन बंटेगी नहीं। ऐसा तभी संभव होगा जब किसान के वंशज दूसरे काम धन्धों में लगेंगे और एक व्यक्ति खेती-किसानी का धन्धा करता रहेगा मगर इसके लिए उसकी पैदावार की उचित कीमत मिलना बहुत जरूरी है जिससे वह अपने बाल-बच्चों को पढ़ा-लिखा कर इंजीनियर और डाक्टर तक बना सके। मध्य प्रदेश के किसानों ने 12 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि करके यह कमाल किया है मगर किसान इसके बावजूद भूखे का भूखा ही रहता है तो दोष किसान का नहीं बल्कि शासन व्यवस्था का है मगर शिवराज सिंह सोच रहे हैं कि उनके उपवास पर चले जाने पर किसान का पेट भर जायेगा! मध्य प्रदेश की किसान संस्थाएं कोई हुर्रियत कान्फ्रेंस नहीं हैं कि उन्हें सीधे बातचीत का निमन्त्रण मुख्यमन्त्री कार्यालय से न भेजा जाये और कहा जाये कि मैं तो उपवास पर बैठा हुआ हूं जिसे बातचीत करनी है आकर कर ले।

यह प्रतिशोधात्मक नजरिये का एक पहलू है। लोकतन्त्र इसकी इजाजत नहीं देता है बल्कि यह ताकीद करता है कि गलती को गलती से नहीं सुधारा जा सकता है। जिन लोगों ने भी हिंसा भड़काने का काम किया है उन्हें परास्त करना जनाभिमुख शासन का पहला काम होना चाहिए। इसके लिए विनम्रता की जरूरत होगी, सत्ता की अकड़ की नहीं। उपवास की ओढ़ी हुई नाटकीय विनम्रता तो और गुस्सा ही पैदा ही करेगी। भारत में जनान्दोलनों का इतिहास तो ऐसा है जिसमें राजनीतिज्ञों पर ही हिंसा भड़काने के मुकदमे अक्सर चलते रहे हैं और हकीकत यह भी है कि हर आन्दोलन को राजनीतिक दलों का ही समर्थन मिलता है मगर इसका मतलब यह नहीं है कि कांग्रेस पार्टी हिंसक आंदोलन को ङ्क्षहसक बना दे और इसके छुटभैये नेता किसानों से सार्वजनिक सम्पत्ति को जलाने की अपील तक करने लगें। जो दो वीडियो प्रकाश में आए हैं उनमें एक विधायक शकुंतला खटीक का है, जो लोगों से थाने को आग लगाने को कह रही है। दूसरे वीडियो में एक कांग्रेसी नेता सार्वजनिक सम्पत्ति को नुक्सान पहुंचाने की बात कर रहा है। ऐसा व्यवहार निश्चित रूप से लोकतांत्रिक अधिकारों पर कुठाराघात करता है और ऐसे लोगों को असामाजिक तत्व या दंगाई करार देता है।

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