स्वतंत्र भारत में मीडिया या प्रैस की आजादी को लेकर कभी भी दो राय नहीं रही हैं परन्तु इलैक्ट्रानिक मीडिया के दौर में विशेषकर इंटरनेट पर सोशल मीडिया की दस्तक से फर्जी या झूठी खबरों के प्रचार-प्रसार से पारंपरिक विश्वसनीय मीडिया की साख पर सवाल खड़ा करना पूरी तरह अनुचित और अस्वीकार्य है। इंटरनेट पर विभिन्न वेबसाइटों के माध्यम से जिस तरह पुरानी वीडियो क्लिपों को किसी अफवाहनुमा खबर के साथ चस्पा करके प्रचार करने का कारोबार पनपा है उसने ‘खबर’ की परिभाषा को ही संशयपूर्ण बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है।
इसका असर प्रतिष्ठापित और विश्वसनीय मीडिया पर पड़े यह लाजिमी नहीं है मगर सूचना क्रान्ति के दौर में वह इससे अछूता भी नहीं रह सकता क्योंकि बाजार के प्रतियोगी माहौल में मीडिया की भूमिका केवल खबरों के दायरे से बाहर निकल कर मनोरंजक विलासिता के क्षेत्र तक फैल गई है। विशुद्ध रूप से मीडिया अब पूरी तरह तिजारत के उन नियमों में फंस चुका है जिसका अन्तिम लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना होता है। यह बाजार की मांग के अनुरूप खुद को बदलने के क्रम में किसी खूबसूरत उपभोक्ता सामग्री की तरह स्वयं को परोस रहा है जिसमें इसका बौद्धिक पक्ष लगातार क्षीण होता जा रहा है।
यदि हम गहराई से विश्लेषण करें तो ठीक यही हालत हमारे आज के राजनैतिक माहौल की भी है। इसमें भी अक्सर वही बिक जाता है जो ऊपरी चमक-दमक भरा होता है मगर भीतर से खाली और पोला होता है। विचारों की गंभीरता जिस तरह राजनीति से गायब होती जा रही है ठीक उसी तरह मीडिया में भी स्थिति बनती जा रही है। यह सिद्ध करता है कि राजनीति व मीडिया दोनों सगी मौसेरी बहनें होती हैं। इक्का-दुक्का अखबारों या न्यूज चैनलों को छोड़ कर पूरा मीडिया बाजार की मांग व आपूर्ति के सिद्धान्त से सराबोर हो चुका है जिसका सबसे ज्यादा लाभ राजनीति ही उठा रही है। अतः यह बेवजह नहीं था कि सूचना व प्रसारण मन्त्री स्मृति ईरानी ने यह हिम्मत की िक उन्होंने पत्रकारों को मान्यता देने के नियमों में अदला-बदली कर डाली।
जिसके तहत यह कहा गया कि जिस किसी भी पत्रकार की खबर के फर्जी होने का अंदेशा भी पाया गया तो उसकी मान्यता अस्थायी रूप से रद्द करके उसकी जांच कराई जायेगी और आरोप पुख्ता होने पर मान्यता को आगे भी क्रमवार ढंग से रद्द कर दिया जायेगा। खुशी की बात है कि इस मुद्दे पर पी.एम. मोदी ने हस्तक्षेप करते हुए इस आदेश को तात्कालिक रूप से रोक लिया लिहाजा 24 घंटे के भीतर ही यह आदेश वापस ले लिया गया। भारत एक एेसा देश है जिसमें पत्रकारों के लिए काम करना सर्वाधिक मुश्किलों और खतरों से भरा है।
दुनिया के सबसे बड़े संसदीय लोकतन्त्र कहलाने वाले देश में यदि पत्रकारिता के पूरी तरह कारोबारी जंजाल में फंसने के बाद यह हालत है तो समझा जा सकता है कि उन पत्रकारों के लिए अपना पत्रकारिता धर्म निभाना कितना चुनौतीपूर्ण है जो सच की तलाश खुद को तिल-तिल कर गलाने की कीमत पर भी करने को तैयार रहते हैं। लोकतन्त्र का नाम ही मतभिन्नता होता है। इस मत विविधता से हमें मतैक्य की प्राप्ति होती है और यही मतैक्य मतभेदों को दूर करता है जिससे लक्ष्य की प्राप्ति होती है लेकिन इस मत भिन्नता को जो लोग फर्जी खबरों के माध्यम से दुष्प्रचार करके लोगों में मति भ्रम फैलाते हैं उनका पत्रकारिता से लेना-देना नहीं होता, अफवाहों से लेना-देना होता है।
जब किसी पत्रकार की खबर उसके नाम के साथ किसी अखबार में छपती है तो यह उसके लिए सम्मान की बात होती है क्योंकि अपनी खबर के हर तथ्य की वह पूरी जिम्मेदारी उठाता है और चुनौती देता है कि इसके विरुद्ध प्रमाण है तो पेश करो। इसके साथ ही दूसरी खबरें उस संस्था की विश्वसनीयता से जुड़ी होती हैं जिसके लिए वह कार्य करता है।
इलैक्ट्रानिक मीडिया में तो यह कार्य और भी आसान होता है क्योंकि उसके काम की तसदीक तस्वीरें साथ-साथ करती हैं परन्तु इसके बावजूद घालमेल की गुंजाइश कुछ लोग तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर बना देते हैं जिसका सबसे बड़ा उदाहरण राजनीतिज्ञ ही होते हैं जो अपने ही बयान की तस्वीरों से इस तर्क के साथ मुकर जाते हैं कि उनका कथन सन्दर्भ से काट कर दिखाया या बताया जा रहा है मगर सवाल फर्जी खबरों को खत्म करने का है। क्या हम भूल सकते हैं कि प. बंगाल में दो समुदायों को भड़काने के लिए किस तरह किसी फिल्म की वीडियो क्लिपिंग का उपयोग किया गया था जिसमें एक समुदाय की महिला को निर्वस्त्र किया जा रहा था।
क्या भूला जा सकता है कि अफगानिस्तान में बनी वीडियो का प्रयोग पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दो समुदायों में वैमनस्य पैदा करने के लिए किया गया था? हकीकत यह है कि आज के दौर में गंभीर पत्रकारिता खुद ही अपना पता पूछती फिर रही है क्योंकि मीडिया के मालिक हर खबर में नफे-नुकसान का हिसाब-किताब लगा रहे हैं। हालत यह हो गई है कि लगातार 19 दिनों से संसद में कामकाज ठप्प है और कोई न्यूज चैनल इस विषय पर सकारात्मक चर्चा कराने को तैयार नहीं है।
हालत यहां तक खराब हो चुकी है कि दलितों के आन्दोलन को हम भारत के सांस्कृतिक-एेतिहासिक सन्दर्भ में परखने की बजाये यह कह रहे हैं कि दलित युवक द्वारा घोड़ी की सवारी करने पर हत्या किये जाने की खबर फर्जी है। केबिनेट सचिव द्वारा दलाई लामा की निर्वासित सरकार के कार्यक्रमों से दूर रहने की लिखित टिप्पणी को भी इसी खाने में डाल रहे हैं। आज के दौर के राजनीतिज्ञों को पं. नेहरू का वह वक्तव्य याद रखना चाहिए जो उन्होंने 3 दिसम्बर 1950 को समाचार पत्र सम्पादक सम्मेलन में दिया था। ‘‘मेरे विचार में प्रेस की स्वतन्त्रता कोई खाली नारा नहीं है बल्कि यह लोकतान्त्रिक प्रणाली का आवश्यक अंग है।
मुझे यह कहने में भी कोई हिचक नहीं है कि अगर सरकार प्रेस को मिली स्वतन्त्रता और अधिकारों को पसन्द भी नहीं करती है और उन्हें खतरनाक तक मानती है तब भी उसके कार्य में हस्तक्षेप करना गलत होगा, क्योंकि प्रतिबन्ध लगाकर आप कुछ नहीं बदल सकते।
एेसा करके आप कुछ बातों के बारे में जनता में फैली अवधारणाओं को केवल दबा सकते हैं जिससे उनके पीछे पनपे हुए विचार और धारणा और फैलेंगे अतः मैं नियमित या प्रतिबन्धों से दबी हुई प्रेस की जगह खतरे भरे अधिकारों का गलत प्रयोग वाली स्वतन्त्र प्रेस का पक्षधर हूं।’’ यह भी जानना बहुत आवश्यक है कि नेहरू ने एेसा क्यों कहा था। उन्होंने एेसा केवल इसलिए कहा था कि उन्हें अपने ऊपर पूरा विश्वास था जो लोकशक्ति से प्राप्त होता है। इसीलिए जब उनके जीवित रहते ही यह बहस छिड़ती थी कि आफटर नेहरू हू ? (नेहरू के बाद कौन) तो वह उन नेताओं की प्रशंसा करते थे जिनका नाम लिया जाता था। हमारे लोकतन्त्र की यही ताकत है जो स्वतन्त्र प्रेस ही हमें दे सकती है मगर फर्जी खबरों से निपटना जरूरी है लेकिन पत्रकारों की गर्दन पर तलवार लटकाये बिना। कानून की धारा 66 ( ए) का हम किस तरह इस सन्दर्भ में प्रयोग कर सकते हैं, सोचें?