फांसी का अध्यादेश - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

फांसी का अध्यादेश

NULL

अल्प किशोर वय की 12 वर्ष से कम आयु की बालिकाओं के साथ बलात्कार करने वाले को मौत की सजा देने के लिए केन्द्र की मोदी सरकार ने अध्यादेश के जरिए सन् 2012 के बच्चों को यौन अपराध से संरक्षण देने वाले कानून (पोक्सो) में संशोधन किया है। सतही तौर पर इस कदम का विरोध करना अल्प वयस्क किशोरों के प्रति उपेक्षा भाव माना जायेगा मगर अध्यादेश को भी जम्मू-कश्मीर के कठुआ में एक आठ वर्षीय बालिका ‘परी’ के साथ हुए जघन्य बलात्कार कांड की त्वरित प्रतिक्रिया ही कहा जायेगा।

दिसम्बर 2012 में जब राजधानी दिल्ली में निर्भया कांड हुआ था तो भी तत्कालीन मनमोहन सरकार की एेसी ही स्थिति थी, मगर निर्भया कांड और कठुआ कांड में मूलभूत अन्तर है। अन्तर केवल यही नहीं है कि निर्भया युवती थी और परी अबोध बालिका थी बल्कि मूल अन्तर यह है कि निर्भया कांड के विरोध में और उसे न्याय दिलाने के लिए सत्ता और विपक्ष दोनों ही तरफ के लोग एक ही आवाज में बोल रहे थे जबकि परी के मामले में जम्मू-कश्मीर सूबे में हुकूमत में शामिल कुछ लोग परी पर दरिन्दगी करने वालों के साथ खड़े नजर आये और खुद को अदालतों का अफसर बताने वाले वकील कानूनी कार्रवाई में ही अड़चनें डालते नजर आये और यह सब इस वजह से हुआ कि परी एक मुसलमान के घर में पैदा हुई थी और उस पर जुल्म ढहाने वाले हिन्दू थे।

कानून के कौन से सफे पर यह लिखा होता है कि जुर्म का भी मजहब होता है? वहीं उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में एक युवती पर सत्ताधारी दल भाजपा के बाहुबली विधायक कुलदीप सिंह सेंगर ने अपनी हुकूमत के रुआब में इस कदर जुल्म किया कि उसके बाप की ही पुलिस हिरासत में मौत करा दी और बलात्कार करके कहा कि ये नीच आदमी हैं, इनकी बात का कोई भरोसा नहीं है। सामान्य व्यक्ति के लिए अध्यादेश कड़ी सजा देने का अच्छा औजार हो सकता है मगर जब यह अध्यादेश संविधान की कसौटी पर कसा जायेगा तो लड़खड़ा जायेगा क्योंकि पोक्सो कानून में 18 वर्ष से कम आयु के किशोरों को ही बच्चा कहा गया है।

अध्यादेश ने अब इन बच्चों में वर्गीकरण कर दिया है और 12 वर्ष तक के बच्चों के साथ बलात्कार करने की सजा मौत मुकर्रर की है। कानून कौन सा चश्मा लगा कर बच्चों में यह भेद करेगा? जब पोक्सो कानून बना तो उसमें यह प्रावधान भी रखा गया कि बच्चों के साथ यौन अपराध होने की जानकारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति यदि इसकी सूचना नहीं देता है तो उसे भी छह महीने की सजा अथवा जुर्माना या दोनों हो सकते हैं मगर कठुआ में तो जानकारी रखने की बात तो दूर रही जघन्य कांड करने वालों के पक्ष में वहां के मन्त्री जनसभाएं करते रहे! इन्हें सजा कौन देगा?

इसलिए असल सवाल शुरू से ही यह नहीं था कि बलात्कारी को फांसी की सजा दी जाये या उम्रकैद दी जाये बल्कि मूल प्रश्न यह था कि बलात्कारी या अपराध करने वाले को किसी भी तौर पर सत्ता का संरक्षण न दिया जाये। परी के हत्यारों और बलात्कारियों को फांसी की सजा मिलने से उन लोगों का अपराध कैसे कम हो जायेगा जिन्होंने एक आठ वर्षीय बच्ची की लाश को ही हिन्दू-मुसलमान का मुद्दा बना दिया। इंसानियत के इन गुनहगारों को कौन सा कानून सजा देगा? आखिरकार हम कानून से चलने वाले मुल्क हैं और एेसे कानून से चलते हैं जिसकी ताईद हमारा संविधान करे।

हमारा संविधान कहता है कि दो समुदायों के बीच रंजिश या दुश्मनी पैदा करने की कोई भी तजवीज राष्ट्रीय अखंडता को भंग करने का अपराध होती है। राष्ट्रीय अखंडता का अर्थ केवल भौगोलिक सीमाओं से ही नहीं होता है। इसीलिए जब आतंकवाद से जूझने काे लेकर 90 के दशक में स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव ने ‘टाडा’ कानून बनाया था तो उसमें यह प्रावधान भी किया था कि समाज के दो समुदायों के बीच वैमनस्य पैदा करने वालों को भी देश विरोध की श्रेणी में लेते हुए उन पर यह कानून लागू होगा मगर जब इस कानून के खत्म हो जाने पर केन्द्र में वाजपेयी सरकार बनी तो उसके गृहमन्त्री लाल कृष्ण अडवानी ‘पोटा’ कानून लेकर आये और उन्होंने बड़ी होशियारी के साथ सामाजिक वैमनस्य के प्रावधान को इससे निकाल दिया जबकि पोटा में पिछले टाडा के लगभग सभी प्रावधान बड़ी एेहतियात के साथ समाहित कर लिये गये।

बाद में मनमोहन सिंह सरकार ने 2004 में सत्ता संभालते ही पहला काम पोटा कानून को रद्द करने का किया। कानून का बनना इस बात पर निर्भर करता है कि हम समस्या को किस नजरिये से देखते हैं। 1978 में जब राजधानी दिल्ली के रिज पर संजय चोपड़ा व गीता चोपड़ा की हत्या की गई तो उसमें भी बलात्कार का जघन्य कार्य हुआ था। इस कांड के अपराधियों रंगा व बिल्ला को फांसी की सजा अदालत ने सुनाई थी।

इसके बाद से अब तक बाल यौन अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं। कानून भी लगातार सख्त होता जा रहा है। भारत में फांसी की सजा का प्रावधान तो पहले से ही है, यह अदालत पर निर्भर करता है कि वह किस अपराध को किस नजरिये से देखती है। बाल यौन अपराध उन देशों में ज्यादा होते हैं जहां बच्चों में शिक्षा के स्तर में भारी अन्तर होता है। हम तो प्राथमिक स्तर से ही अमीरों और गरीबों के बच्चों में भेद करने में मशहूर हैं। वैसे फांसी की सजा देने के प्रावधान का विरोध करने का कोई औचित्य नहीं है मगर देखना यह होगा कि बच्चों में ही कहीं इससे मनोवैज्ञानिक स्तर पर बदलाव आने न शुरू हो जायें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

4 × 3 =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।