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जस्टिस जोसेफ को ‘जस्टिस’?

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स्वतन्त्र भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा है जब न्यायपालिका की स्वतन्त्रता और निष्पक्षता पर देश की सड़कों पर आम आदमी चर्चा कर रहा है। भारत के मजबूत चौखम्भे लोकतन्त्र के लिए यह निश्चित रूप से संकटकालीन समय है। हमारे संविधान निर्माताओं ने जो व्यवस्था हमें स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सौंपी थी उसमें न्यायपालिका को हर हालत में राजनीतिक हस्तक्षेप से ऊपर रखने के पुख्ता इन्तजाम इस तरह बांधे गये थे कि संविधान की कसौटी पर कोई भी राजनीतिक विचारधारा अपनी हदों में रहते हुए भारतीय गणराज्य की सत्ता पर आसीन दलीय व्यवस्था के अनुसार गठित सरकार को संवैधानिक प्रावधानों का अनुपाल करने के लिए बाध्य करती रहे।

इसके लिए हमने सर्वोच्च न्यायालय का गठन किया और उसे यह कार्य सौंपा कि वह किसी भी सरकार के फैसले को संविधान की कसौटी पर कस कर उसे वैध अथवा अवैध करार दे। इसके लिए न्यायपालिका को वे पूरे अख्तियार दिये गये कि वह देश के प्रधानमन्त्री तक को उसकी कार्य सीमाओं में बांध सके और सत्ता व संसद को संविधान के प्रति जवाबदेह बनाये रख सके। बेशक संसद को संविधान में संशोधन करने के अधिकार दिये गये मगर इसके आधारभूत ढांचे के साथ छेड़छाड़ करने की इजाजत इसे नहीं दी गई।

इस व्यवस्था के लिए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की स्वतन्त्र सत्ता इस प्रकार स्थापित की गई कि वह संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति के साये में अपने कार्यों का निष्पादन बिना किसी बाहरी प्रभावों के निर्भय होकर कर सके।

सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की जो प्रक्रिया अपनाई गई उसमें भी विवेकाधिकार न्यायालय पर ही छोड़कर सुनिश्चित किया गया कि राजनीतिक आग्रहों और स्वार्थों से न्याय की पवित्र प्रक्रिया पूरी तरह दूर रहे लेकिन पिछले कुछ समय से जिस तरह न्यायपालिका पर हमले हो रहे हैं और मुख्य न्यायाधीश की कार्यप्रणाली को लेकर न्यायालय के भीतर से ही विरोधाभासी खबरें आ रही हैं उनसे यह आशंका प्रबल होती जा रही है कि राजनीतिक सत्ता न्यायिक प्रक्रिया के प्रबन्धन के रास्ते तलाश रही है और उस पर अपनी इच्छा लादने के प्रयास कर रही है। इस सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले को लेकर गंभीर मतभेद सामने आये हैं।

आज ही सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश पद की शपथ लेने वाली सुश्री इन्दू मल्होत्रा के साथ ही दूसरे न्यायाधीश केएम जोसेफ की इस पद पर नियुक्ति की सिफारिश को केन्द्र सरकार ने नहीं माना। उनकी सिफारिश भी सर्वोच्च न्यायालय के उसी निर्वाचक मंडल (कोलिजियम) ने की थी जिसने सुश्री इन्दू मल्होत्रा को चुना।

कानून मन्त्रालय ने उनके नाम पर आपत्ति करते हुए नियुक्ति को न केवल टाला, बल्कि मंडल से अनुरोध किया कि वह अपने फैसले पर पुनर्विचार करे। पिछले तीन महीने से ये नियुक्तियां टल रही थीं। निर्वाचन मंडल में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के अलावा न्यायमूर्ति जे. चमलेश्वर, मदन बी. लोकुर व कुरियन जोसेफ शामिल थे। इन्होंने सर्वसम्मति से इन्दू जी के नाम के साथ ही श्री जोसेफ की सिफारिश की थी। सवाल पैदा होता है कि कानून मंत्रालय किस आधार पर सर्वसम्मति से अनुमोदित दो नामों में से किसी एक पर आपत्ति करके न्यायाधीशों के अधिकार को चुनौती दे सकता है?

श्री जोसेफ ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश रहते राज्य में मनमाने ढंग से राष्ट्रपति शासन लगाने के केन्द्र के फैसले को 2016 में निरस्त करार देकर संविधान की हत्या होने से रोकने का काम किया था। उनके इस संवैधानिक कार्य से यदि कोई सरकार नाराज होती है तो उसका अर्थ यही निकलता है कि सरकार अपने मन माफिक न्यायाधीश की नियुक्ति करके सर्वोच्च न्यायालय को प्रभावित करना चाहती है।

इसका सबसे पहले विरोध मुख्य न्यायाधीश को ही करना चाहिए था और सोचना चाहिए था कि क्यों उनकी ही उपस्थिति में देश का कनून मन्त्री सर्वोच्च न्यायालय के एक समारोह में यह कहने की जुर्रत कर जाता है कि मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति का अधिकार प्रधानमन्त्री को दे दिया जाये तो कुछ नहीं बिगड़ जायेगा, क्यों​िक देश के परमाणु बम का बटन प्रधानमन्त्री के हाथ में ही होता है।

परमाणु बम और मुख्य न्यायाधीश की तुलना निश्चित रूप से एेसा व्यक्ति ही कर सकता है जिसका न्यायपालिका की स्वतन्त्रता में कोई विश्वास न हो और जो लोकतन्त्र को चाटुकारिता के नये पैमाने में ढाल कर भारत की शासन व्यवस्था को ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ स्तर पर देखने की हिमाकत करता हो। न्यायपालिका के बारे में एेसा तो इमरजेंसी के दौरान भी किसी ने कहने की हिम्मत नहीं की थी।

श्री जोसेफ की नियुक्ति न करने के पीछे जो बहाने दिये जा रहे हैं वे पूरी तरह हास्यास्पद और न्यायपालिका की तौहीन करने वाले हैं। तर्क दिया जा रहा है कि वह केरल से तीसरे न्यायाधीश होंगे, जबकि दिल्ली से ही सर्वोच्च न्यायालय में चार न्यायाधीश हैं। तर्क दिया जा रहा है कि वह अखिल भारतीय स्तर पर वरिष्ठाता में 42वें स्थान पर हैं। कहा जा रहा है कि अन्य राज्यों का सर्वोच्च न्यायालय में प्रतिनिधित्व नहीं है।

भला कोई पूछे कि सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति का यह मानदंड कब से और किसने निर्धारित किया कि केन्द्र का कानून मन्त्री यह देखेगा कि योग्यता और प्रामाणिकता को दर किनार करके न्यायाधीशों का यह कोटा लागू होगा? क्या मन्त्रिमंडल का विस्तार हो रहा है जिसमें हर राज्य और हर जाति व क्षेत्र के लोगों को प्रतिनिधित्व मिलेगा। सर्वोच्च न्यायालय कोई राजनीति का अखाड़ा नहीं है कि यहां वह पैमाना लागू हो जाे राजनीति में होता है। इसमें केवल और केवल योग्यता और संवैधानिक प्रामाणिकता ही मायने रखती है।

इसमें बैठे न्यायमूर्ति किसी राज्य या क्षेत्र का प्रतिनिधित्व नहीं करते, बल्कि वे भारत के संविधान का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्हें इस दायरे में कैद करके देखना भारत की समग्र एकीकृत शक्ति का परिहास करने के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। इससे भी ऊपर सवाल यह है कि जब सर्वोच्च न्यायालय के निर्वाचन मंडल ने सभी पक्षों पर गहन विचार करने के बाद सर्वसम्मति से अपना फैसला दे दिया है तो उस पर पुनर्विचार करने के लिए कहकर हम समूची न्यायपालिका की न्यायप्रियता पर ही प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं? यह सवाल विपक्ष नहीं खड़ा कर रहा,

बल्कि स्वयं सरकार खड़ा कर रही है जो इस बात का प्रमाण है कि सत्ता न्यायपालिका को निर्देश देना चाहती है। यह बेवजह नहीं था कि जब 1974 में स्व. इंदिरा गांधी ने चार वरिष्ठ न्यायाधीशों की वरिष्ठता लांघ कर अजित नाथ रे को मुख्य न्यायाधीश बना दिया था तो तीन न्यायाधीशों सर्वश्री हेगड़े, शेलेट व ग्रोवर ने इस्तीफा दे दिया था और तब जनसंघ ने इन तीनों न्यायाधीशों को ‘न्याय पुरुषोत्तम’ के खिताब से नवाजा था लेकिन क्या उलटी गंगा बहाई जा रही है कि आज देश के ईमानदार न्यायाधीशों से उनके कानून का गुलाम होने की कैफियत पूछी जा रही है?

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