कश्मीरी भी पक्के भारतीय - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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कश्मीरी भी पक्के भारतीय

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भारत की यदि कोई सबसे बड़ी ताकत कही जा सकती है तो वह इस देश का लोकतन्त्र है। इस लोकतन्त्र की सबसे बड़ी ताकत भारत के वे लोग हैं जो विभिन्न धर्मों और मत-मतान्तर के होने के बावजूद संविधान के धर्मनिरपेक्ष ढांचे में विश्वास रखते हैं और भारत को हर कीमत पर एक राष्ट्र के रूप में मजबूत बनाये रखने की कसम खाते हैं क्योंकि संविधान को इन्हीं लोगों ने 26 जनवरी 1950 को स्वीकार व लागू किया। अतः यह स्पष्ट होना चाहिए कि भारत इसके लोगों से ही बनता है और इसकी मजबूती भी इन्हीं लोगों की मजबूती से तय होती है। इस भारत में वह जम्मू-कश्मीर भी आता है जिसका विलय 26 अक्तूबर 1947 को भारतीय संघ में हुआ था। इस विलय की कुछ विशेष शर्तों से जम्मू-कश्मीर के लोगों की भारतीयता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

वे भी उतने ही भारतीय हैं जितने कि किसी अन्य राज्य के लोग। अतः आम कश्मीरियों के बारे में कुछ तत्व जब भ्रम फैलाने की कोशिश करते हैं और उनकी राष्ट्रीयता के बारे में गफलत भरी बातें करते हैं तो अक्सर उसका जवाब हमें इसी राज्य की जनता द्वारा मिल जाता है। यहां की नई पीढ़ी बदलते भारत में अपनी भूमिका वही देखना चाहती है जो अन्य राज्य के लोग देखते हैं। अतः जब भी किसी दूसरे राज्य में किसी कश्मीरी छात्र या नागरिक के साथ दुर्व्यवहार होता है तो भारतीयता कराहने लगती है। हाल ही में आतंकवादियों के हाथों मारे जाने वाले सुरक्षा बलों के जवानों में कश्मीरियों की संख्या बताती है कि उनमें राष्ट्रभक्ति का जज्बा किसी भी स्तर पर कम नहीं है। वे भी देश की सुरक्षा में अन्य लोगों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर अपनी जान हथेली पर लेकर लड़ने में यकीन रखते हैं।

मैं शुरू से ही कहता रहा हूं और एेतिहासिक सबूतों के साथ सिद्ध करता रहा हूं कि कश्मीरी शुरू से ही पाकिस्तान के विरोधी रहे हैं। यहां की जनता 1947 में पाकिस्तान के निर्माण के पूरी तरह खिलाफ थी और चाहती थी कि मजहब की बुनियाद पर भारत से काट कर किसी अलग देश का निर्माण नहीं होना चाहिए। मगर 15 अगस्त 1947 को एेसा होने के बावजूद कश्मीर की जनता ने कभी भी पाकिस्तान के मजहबी फलसफे के झांसे में आने की जरा भी कोशिश नहीं की।

भारत के भीतर इस राज्य के राजनैतिक नेताओं के केन्द्र से जो भी मतभेद रहे वे इस सूबे के विलय पत्र की शर्तों में उल्लिखित अधिकारों को लेकर ही रहे। बेशक इसकी रहनुमाई स्व. शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने ही की मगर उन्होंने भी कभी पाकिस्तान को यह मोहलत नहीं दी कि वह कश्मीर को भारत से अलग रखकर देखने की हिमाकत कर सके। इसका सबूत यह है कि जब नजरबन्दी से रिहा होकर 1963 में शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान गये तो इस्लामाबाद में उनका स्वागत तत्कालीन पाकिस्तानी हुक्मरान जनरल अयूब ने लाल गलीचे बिछा कर किसी राजप्रमुख के लिए किये जाने वाले इन्तजामों के साथ किया और उन पर डोरे डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मगर जब शेख साहब पाकिस्तान से लौटे तो जनरल अयूब ने कहा कि ‘’शेख अब्दुल्ला पं. नेहरू का गुर्गा है’’।

इसकी वजह यही थी कि शेख अब्दुल्ला ने पाकिस्तान की मजहबी तजवीज को ठोकर पर रखकर कह दिया था कि जम्मू-कश्मीर की हिन्दोस्तान से बन्धी हुई तकदीर को किसी भी कीमत पर बदला नहीं जा सकता है। हमारे जो भी मतभेद हैं वे नई दिल्ली से हैं और इस्लामाबाद इसमें बीच में कहीं नहीं आता है। मगर अभी यह बात उठी है कि अगर सरदार पटेल आजादी के बाद प्रधानमन्त्री बने होते तो कश्मीर समस्या पैदा ही न होती? दरअसल पहले तो सरदार पटेल भारत की आजादी के वर्षकाल के परिवर्तनकाल में भी केबिनेट मिशन के तहत 1946 से चल रही तत्कालीन वायसराय की अध्यक्षता में परिषद के गृह विभाग के प्रमुख थे और पं. नेहरू इस परिषद के मुख्य कार्यकारी अधिकारी थे। वह पं. नेहरू के नेतृत्व में यह काम पूरे सन्तोष के साथ कर रहे थे।

दूसरे उनकी दिली इच्छा थी कि गुजरात की जूनागढ़ रियासत का विलय यदि भारतीय संघ में हो जाये तो वह अच्छा प्रावधान होगा क्योंकि यह रियासत नवाब के नियन्त्रण में थी जबकि हिन्दू रियाया बहुसंख्या में थी। ( महात्मा गांधी के पोते व पूर्व राज्यपाल श्री राजमोहन गांधी ने सरदार पटेल पर लिखी अपनी पुस्तक में सप्रमाण इसका उल्लेख किया है)। जम्मू-कश्मीर की रियासत के महाराजा हरिसिंह आखिरी दम तक भारत व पाक के साथ सौदेबाजी करने की फिराक में रहे जिसकी वजह से सरदार पटेल शान्त बने रहे। मगर 1948 में राष्ट्रसंघ में जब जनमत संग्रह कराने के प्रस्ताव को कूड़ेदान में फैंकने की बात उठी तो शेख अब्दुल्ला का भारत के पक्ष में खड़ा होना बहुत लाजिमी बन गया था और शेख साहब ने इसके बाद राष्ट्रसंघ में जाकर ही यह घोषणा की कि कश्मीरी भारतीय संघ में ही खुद को महफूज समझते हैं।

अतः इतिहास के ये एेसे पन्ने हैं जो आम कश्मीरियों की भारतीयता को इज्जत की निगाहों से देखते हैं। इसका मुजाहिरा पुनः कश्मीरी धरती पर होने लगा है जब शहीद सुरक्षा जवानों के जनाजों में शामिल यहां के लोग पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाकर एेलान करते हैं कि उनका मुल्क हिन्दोस्तान है। यह आज के नेशनल कान्फ्रेंस के उस विधायक के मुंह पर करारा तमाचा है जिसने विधान भवन के भीतर उल्टा नारा लगाया था।

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